आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं
“आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं सामान सौ बरस का है पल की खबर नहीं"
मौत एक कड़वी सच्चाई है जिसका सामना हर नफ़्स को ज़रूर ज़रूर करना है। दुनिया में जिसने भी जन्म लिया है जो भी पैदा हुआ है या जो भी चीज़ वुजूद रखती है उसका ख़त्म (समाप्त) होना लाज़मी (ज़रूरी) है क्योंकि अल्लाह पाक ने कुरान में साफ़ साफ़ लिख दिया और फ़रमाया है कि "हर नफ़्स को मौत का मज़ा चखना है" लेकिन हम गौर करें कि मौत से पहले हमारी तैयारी कैसी है जो इस दुनिया से एक बार चला गया वो वापस लौटकर नहीं आता उसके अच्छे आमाल नेक काम ही उसके काम आते हैं। मौत किसी को भी, कभी भी, कहीं भी आ सकती है। इसलिए इसकी तैयारियों की तरफ़ हमारा ध्यान सबसे ज्यादा होनाचाहिए। कुछ रोज़ पहले एक उसमें जाकर बड़ी तकलीफ़ का सामना करना पड़ा और महसूस हुआ कि हम क्या थे और अब क्या बनते जा रहे हैं। जिन्दगी की कड़वी सच्चाई का सामना भी हम बड़े हल्के तरीके से लेते हैं और उसका भी दुनियावी रस्म की तरह से निभाने कोई बशर लगे हैं। शायद मेरी यह बात कुछ तल्ख़ लग सकती है मगर सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। हमें इन हालात से बदनाम ही होना पड़ेगा। और इसके लिए बहुत ज्यादा कोशिशें दरकार हैं। सबसे पहले तो यह कि जनाज़े में हम कंधा देने में कतराते हुए नज़र आते हैं। कंधे देने का बेहतरीन अमल हमसे छूटता नज़र आता है। उसके बाद आइए जनाजे में हम अक्सर देखते हैं लोग पीछे चलते हैं या तो हम गाड़ियों से कब्रिस्तान पहले पहुंच जाते हैं या पीछे बातें करते हुए जनाज़े में शामिल होते हैं, उसके बाद एक सबसे बड़ा और आखिरी तोहफा जो उस मंजर को देखकर बेहद मलाल हुआ कि जनाज़ों की नमाज़ भी हम बहुत कम पढ़ते हैं और अगर पढ़ी जाती है तो बहुत कम तादाद में लोग अदा करते हैं। हमें यह मालूम है कि नमाज़ की शराइत (शर्ते) सब वहीं हैं जो दूसरी नमाज़ों में होतीहैं। सिर्फ सज़दा, रुकू वगैरह नहीं होता। उसमें तकबीरें होती हैं, सना पढ़ी जाती है, दुरुद शरीफ़ पढ़ा जाता है, दुआएं मांगी _जाती है। नमाज़ में जिस तरह जगह की पाकी-वुजू करना, जिस्म का पाक होना शर्त है और दूसरी बशर नहीं शर्ते हैं हम जिस तरह ईदों पर जुमातुलविदा में नमाज़ का पूरा इंतिज़ाम व ऐहतमाम करते हैं।
क्या जनाजे की नमाज़ के लिए यह इंतिज़ाम नहीं कर सकते। अक्सर देखा जाता- मस्जिद के बाहर वुजू करके खड़े हो जाते हैं और नमाज़े जनाज़ा अदा करते हैं। मैंने यह तक देखा कुछ लोग जूते पहनकर नमाज़ पढ़ रहे थे। अब गौर का मकाम यह है कि क्या जूते पाक थे, क्या वो जगह पाक थी जिस तरह ईद व जुमे की नमाज़ में हम कपड़ा वगैरह लेकर जाते फिर कुछ सफाई का भी ऐहतमाम होता है। अगर हम भी यह इंतिजाम जनाज़े की नमाज़ जो जनाज़ा के लिए ज़रूरी शर्ते हैं उनको पूरा करते हुए करें तो मरहूम के लिए सवाब का ज़रिया और हमारे लिए भी सवाब का एक बड़ा जरिया बन जाएगा। तदफीन के वक्त (दफनाते समय) भी बहुत सी बाते सामने आती हैं। कब्रिस्तान में भी हम दुनियावी बातें करने में मशगूल हो जाते हैं, वहां भी हमें आख़िरत याद नहीं आती। अक्सर मोबाइल _ पर बातें करते नज़र आते हैं। बड़ी माज़िरत (माफी) के साथ यह कहना चाहता हूं कि हमें कब्रिस्तान में कम से कम हंसना नहीं चाहिए, दुनियावी बातें नहीं नहीं करना चाहिए क्योंकि वो इबरत (सबक़) लेने का मक़ाम है। आज हम किसी को छोड़ने आए हैं। कल कोई दूसरे लोग हमें छोड़कर चले जाएंगे। हज़रत उस्मान गनी रजिअल्लाहो अन्हो जब कब्रिस्तान तशरीफ़ ले जाते थे तो आप इतना रोते थे कि आपकी दाढ़ी मुबारक भीग जाया करती थी। किसी ने पूछा “अमीरुलमोमिनीन आप इतना क्यों रोते हैं तो आपने फ़रमाया कि यह आखिरत की पहली मंजिल है" अगर यहां कामयाब हो गए तो आखिरत में कामयाबी है। हज़रत उस्मान गनी रजि. वो सहाबी जिनको दुनिया में अल्लाह के हबीब रसूले करीम ने जन्नत की बशारत अल्लाह पाक के हुक्म से दे दी थी। जब हज़रते उस्मान का यह हाल है तो हम गौर कर सकते हैं कि हमारा क्या बनेगा।
हम कब्रिस्तान जाएं तो इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि दुनियावी बातों में बिल्कुल भी वक्त न लगाएं और मरहूमीन की मग़फिरत की दुआएं करें। इससे मरहूमीन को तो ईसाले सवाब का जरिया है ही हमारे लिए भी सवाब के इंतिजामात हो जाएंगे। अल्लाह सबको तौफीक अता फ़रमाए।