खुदा के अहकाम औरतों की नज़र में


        हज़रत उलैमा (रजि.) कहती हैं कि उन्होंने कुछ औरतों के साथ नबी (सल्ल.) के सामने इस्लाम के अहकाम पर अमल करने का अहद किया तो नबी (सल्ल.) ने हमसे अहद लेते समय फ़रमाया : जितना तुम्हारे बस में हो, जहां तक तुमसे हो सके, इन अहकाम पर अमल करना। उमैमा (रजि.) ने कहा : अल्लाह औरउसके रसूल हमारे ऊपर उससे ज्यादा मेरहबान हैं जितना कि हम खुद अपने ऊपर हो सकते हैं।


(हदीस : मिशकातुल-मसाबीह)


व्याख्या : उमैमा (रजि.) के कहने का मतलब यह है कि अल्लाह और रसूल हमारे मुक़ाबले में हमारे ज्यादा खैरख़ाह हैं, उनकी ओर से आए हुए अहकाम कभी भी हमारी ताक़त से बाहर नहीं हो सकते। ऐसी हालत में इस शर्त की क्या ज़रूरत है? यह है सहाबा और सहाबियात (सहाबी औरतों) के सोचने का अंदाज! हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रजि.) ने बड़ी सच्ची बात कही थी : "ये गहरा इल्म रखने वाले लोग थे।"


निफ़ाक़ (कपटाचार) क्या है?


मुहम्मद इब्ने जैद कहते हैं कि कुछ लोग मेरे दादा अब्दुल्लाह इब्न उमर (रजि.) के पास आए। उन्होंने कहा : बादशाह (ख़लीफ़ा) के सामने हम कुछ कहते हैं और वहां से उठकर आने के बाद कुछ और कहते हैं (यह कैसा है?) अब्दुल्लाह इब्ने उमर का जवाब था : हम इसे नबी (सल्ल.) के समय में निफ़ाक़ समझते थे(हदीस : बुख़ारी)


व्याख्या : यहां बादशाह से बनू उमैया (शासक वंश) के नुमाइन्दे हैं। अब्दुल्लाह इब्ने उमर (रजि.) ने उमैया वंशज की हुकूमत का ज़माना देखा था। बनू उमैया की हुकूमत सही मायनों में आदर्श इस्लामी राज्य (ख़िलाफ़ते- राशिदा) न थी। नबी (सल्ल.) के साथियों ( सहाबा रजि.) को नमूना बनाओ हज़रत इब्ने-मसऊद (रजि.) ने कहा : जो सीधे रास्ते पर चलना चाहता हो उसे उन लोगों की राह अपनानी चाहिए जो इस संसार से जा चुके हैं क्योंकि व्यक्ति जब तक ज़िन्दा रहता है, उसके फ़ितने में पड़ने और सच्चे दीन से हट जाने का अन्देशा बना रहता है। दुनिया से जा चुके जिन लोगों की ओर मैं इशारा कर रहा हूं, वे नबी के साथी लोग हैं। ये लोग मुस्लिम उम्मत के चुने हुए और सबसे ऊंचे लोग हैं। उनके दिल अल्लाह की फ़रमाबरदारी के जज्बे से पुर थे। वे इस्लाम का गहरा इल्म रखते थे, तकल्लुफ़ और बनावट से दूर थे। अल्लाह ने उन्हें अपने नबी का साथ देने और अपने दीन को क़ायम करने के लिए चुन लिया था। तो ऐ मुसलमानों! तुम उनका मक़ाम पहचानो, उनकी पैरवी करो, उनके अख़्लाक़ और सीरत को जितना मुमकिन हो मज़बूती से थामो, इसलिए कि ये लोग अल्लाह के बताए हुए सीधे मार्ग पर चलने वाले थे।


(हदीस : मिशकातुल-मसाबीह)


व्याख्या : अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद (रजि.) ने लम्बी उम्र पाई। नबी (सल्ल.) के ज़्यादातर साथी उनके सामने दुनिया से रुखसत हुए थे। उन्होंने देखा कि नबी (सल्ल.) के इन्तिक़ाल पर जितना समय बीतता जा रहा है, लोगों में उतनी ही खराबियां जन्म लेती जा रही हैं। उनके गिरोह अलग-अलग लोगों को अपना रहनुमा बना रहे हैं। इसलिए उन्होंने लोगों को बताया कि नबी (सल्ल.) के साथियों को अपना रहनुमा और पेशवा बनाओ, उनके अख़्लाक़ और सीरत को अपनाओ। जमाअत के साथ नमाज़ अदा करने के लिए चलकर मस्जिद जाने की अहमियत एक अंसारी सहाबी थे जिनका घर मस्जिदे-नबवी से काफ़ी दूर था- इतना दूर जितना किसी अन्य सहाबी का न था। इस दूरी के होते हुए भी उनकी कोई नमाज़ नहीं छूटती थी। उनसे कहा गया कि रात को अंधेरे और दिन में धूप से बचने के लिए खच्चर ख़रीद लेते तो बड़ा अच्छा होता। उनका जवाब था: मुझे यह पसंद नहीं कि मस्जिदे-नबवी के पहलू में मेरा घर हो। मैं तो यह चाहता हूं कि मस्जिद तक पैदल आने, फिर घर तक वापस होने का सवाब मेरे हिस्से में लिखा जाए। तो नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया : तुम्हारे लिए यह सब रिकॉर्ड कर लिया गया है। (हदीस : मुस्लिम) फ़ज्र व इशा की नमाज़ बाजमाअतसहाबा की नज़र में हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि.) कहते हैं कि जब हम किसी व्यक्ति को फ़ज्र व इशा की नमाज़ में शरीक नहीं देखते तो उसके बारे में ग़लत राय रखते। व्याख्या : यानी ऐसे व्यक्ति के बारे में हमें मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) होने का संदेह होने लगता। मुनाफ़िक़ लोग आमतौर पर फ़ज्र और इशा की नमाज़ पढ़ने मस्जिद नहीं आते थे। उस ज़माने में बिजली की रोशनी तो थी नहीं, छिपने के मौक़े हासिल थे। इसलिए ये मुनाफ़िक़ जिनके दिल ईमान से खाली थे, इशा और फ़ज्र की नमाज़ में नहीं पहुंचते थे। हां, दिन की जिन नमाज़ों में हाज़िर होते थे, उनका हाल क़ुरआन मजीद में इस प्रकार बयान किया गया है: "ये लोग नमाज़ पढ़ने तो बस मारे बांधे, कसमसाते और बेदिली के साथ (मस्जिद) आते हैं।" (कुरआन, सूरा-9 तौबा, आयत 54)


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