बहुसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति शुरु


देश में अब सभी दल बहुसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति कर रहे हैं, अल्पसंख्यकों में विकास की बात करना गुनाह समझा जाने लगा है।


देश की राजनीति का चरित्र बदल गया है। अब चुनाव जीतने के लिए सभी बहुसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति कर रहे हैं। अल्पसंख्यकों के विकास की बात करना गुनाह समझा जाने लगा है। देश में धर्मनिरपेक्षता अब या संविधान के पन्नों तक सीमित हो गई है। या फिर नेताओं के भाषणों तक सीमित हो गई है। देश की राजनीति अब धर्मों के आधार पर बंट गई है। अल्पसंख्यक पूरी तरह से हाशिये पर आ गए हैं और सभी दल बहुसंख्यकों के थोक में वोट हासिल करने के लिए अब बहुसंख्यक तुष्टीकरण के रास्ते पर चल रहे हैं। पहले यह काम सिर्फ भाजपा करती थी लेकिन अब बहुसंख्यक समुदाय एक वोट बैंक के रूप में विकसित हो गया है।


             इसीलिए सभी दल रास्ते पर चल निकले हैं। राहुल गांधी का खुद को शिवभक्त बताना, जनेऊधारी हिन्दू बताना उसी राजनीति का हिस्सा है। इस काम में देश के मीडिया ने भी अहम रोल अदा किया है। दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान पत्रकारों ने अरविन्द केजरीवाल से यह नहीं पूछा कि यदि वे सत्ता में आते हैं तो दिल्ली के विकास के लिए उनके पास क्या योजना है बल्कि पत्रकार ने उनसे यह पूछा कि क्या उन्हें हनुमान चालीसा याद है। अरविन्द केजरीवाल ने यह नहीं कहा कि धर्म उनका निजी मामला है। उनसे दिल्ली के विकास के एजेंडे का सवाल पूछा जाना चाहिए। बल्कि तीन बार हनुमान चालीसा सुना दी। इसके पीछे मैसेज यह था कि वे भी वैसे ही हिन्दू हैं जैसे भाजपा वाले हैं। चुनाव जीतने के बाद वे राजघाट पर बापू की समाधि के दर्शन करने नहीं गए। अगर वे वहां जाते तो पूरे देश में मैसेज जाता कि केजरीवाल दिल्ली में बापू के सपनों के आधार विकास करना चाहते हैं। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि कनॉट पैलेस के हनुमान मंदिर दर्शन करने गए और मैसेज यह दिया कि वे सिर्फ बहुसंख्यकों के वोटों से ही जीते हैं। वे पूरे चुनाव प्रचार के दौरान दिल्ली के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में जाने से बचते रहे क्योंकि वे यह मानकर चल रहे थे कि मुसलमान जाएंगे कहां। उनको भाजपा को हराने के लिए मजबूरन वोट देने ही पड़ेंगे।


                 अगर मुस्लिम इलाकों में चले गए तो कहीं हिन्दू नाराज न हो जाए। ऐसा डर सिर्फ केजरीवाल को नहीं लगता है देश की हर पार्टी में ऐसा ही डर पैदा हो गया है। हर पार्टी खुद को बहुसंख्यकों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करना चाहती है। सपा के अखिलेश यादव ने योगी के ऐसे पुरानी साथी को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया जो खुलेआम हर मस्जिद की मीनार पर भगवा फहराने का ऐलान करता था। इतना ही नहीं मुस्लिम महिलाओं को कब्र से निकालकर बलात्कार की बात करता था। अब वह नेता समाजवादी हो गया है और अखिलेश यादव अब भी मुस्लिम हितैषी नेता बनने का ढोंग कर रहे हैं।


                 मायावती जी तो इस कदर डरी हुई है कि वे सीएए का खुलकर विरोध नहीं कर पा रही है। लखनऊ में सीएए का विरोध कर रही महिलाओं के टेंट और कंबल पुलिस उठा ले गए लेकिन बहुसंख्यकों के नाराजगी के डर से न वहां मायावती जाने का साहस जुटा पाई और न ही अखिलेश यादव यह बहुसख्यंकों के तुष्टीकरण से मिलने वाले वोट के लालच का ही नतीजा है। यूपी का मुख्यमंत्री विधानसभा में पुलिस की हिंसा को जायज ठहरा रहा है। पुलिस की प्रशंसा कर रहा है। प्रदर्शन में मारे जाने वाले लोगों के बारे में कह रहा है कि जो मरने के लिए आए हैं उन्हें कैसे बचाया जा सकता है।


                  ऐसा लगता है कि देश संविधान से नहीं चल रहा बल्कि बहुसंख्यकों की इच्छा से चल रहा है और बहुसंख्यकों के एक वर्ग के दिमाग में आरएसएस ने यह बात घुसा दी है कि मुसलमान गद्दार होते हैं इसलिए नेता खुलेआम पूरे समुदाय को गद्दार कहते हैं। गोली मारने की बात करते हैं जबकि देश का कानून कहता है कि यदि कोई देश से गद्दारी भी करता है तो उसको सजा देने की एक न्यायिक प्रक्रिया है। सजा देने से पहले साबित किया जाता है कि उसने देश से गद्दारी की थी। अब न्यायिक प्रक्रिया अपनाने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। वह जिसे भी गद्दार मान ले उसे मोली मार देनी चाहिए। उन्हें नौसेना के वे लोग गद्दार नजर नहीं आते जो हाल ही देश की सुरक्षा से सम्बंधित सूचनाएं पाकिस्तान को देते हुए पकड़े गए हैं और इत्तेफाक से इनमें एक भी मुसलमान नहीं है। सभी बहुसंख्यक समुदाय के हैं।


                      इसीलिए गोदी मीडिया इस पर प्राइम टाइम में बहस नहीं करवा रहा है। यदि इनमें से दुर्भाग्य से कुछ लोग मुसलमान होते तो फिर पूरे समुदाय को ही गद्दार घोषित कर दिया जाता। चौकसे से लेकर नीरव मोदी और माल्या जैसे लोग जो देश की पूंजी लूटकर भाग गए उनमें एक भी व्यक्ति न तो मुसलमान है और न ही दलित है। अब बताए की कौन गद्दार है और कौन नहीं है।


यूपी के डॉक्टर कफील पर रासुका लगा दी गई पर देश का पूरा डॉक्टर समुदाय खामोश है। क्योंकि डॉ. कफील मुसलमान है। यदि डॉक्टर कफील की जगह डॉक्टर कपिल पर रासुका लगाई जाती तब भी यह डॉक्टर ऐसे ही खामोश रहता! आज जो देश में बहुसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति चल रही है उसमें मुसलमानों के विकास की बात करना ही गुनाह बना दिया गया है। इसके दुष्परिणामों के बारे में सभी राजनैतिक दल को सोचना चाहिए। मुसलमान आबादी के हिसाब से दूसरा बड़ा समुदाय है। क्योंकि इतने बड़े समुदाय को हाशिये पर छोड़ देने से देश तरक्की कर सकता है। जबकि मुसलमान भी देश का वैसा ही नागरिक है जैसे बाकी समुदाय के लोग हैं।


             मुसलमानों की वैसी ही समस्याएं है जैसे बाकी समुदाय के लोगों की है। वह आजादी के समय देश में इसलिए रहा क्योंकि उसे जिन्ना की धर्म के आधार पर बंटवारे की सोच स्वीकार नहीं थी लेकिन उनके बुजुर्गों ने सपनों में भी नहीं सोचा होगा कि भारत से मोहब्बत करने की सजा उन्हें ऐसे दी जाएगी कि उनको खुलेआम गद्दार घोषित किया जाएगा और गोली मारे के नारे लगाए जाएंगे। देश की बहुसंख्यक जनता को इस स्थिति पर चिंतन करनी चाहिए। राजनैतिक दल तो अपनी सारी मर्यादाएं भूल चुके हैं। वे तो हर हाल में चुनाव जीतना चाहते हैं।


                  उनके लिए देश, संविधान, लोकतंत्र, इन सबसे बड़ा चुनाव जीतना है। लेकिन बहुसंख्यक समुदाय को सोचना है कि राजनैतिक दल जो नफरत फैला रहे हैं। क्या वह देश व समाज के हित में है, क्या इस पर रोक नहीं लगनी चाहिए। क्योंकि यह काम अब बहुसंख्यक समुदाय ही कर सकता है और उसे करना भी चाहिए। क्योंकि देश का संविधान बचाने एवं लोकतंत्र को कायम रखने की उनकी ज्यादा जिम्मेदारी है। उन्हें समझना चाहिए कि नफरत फैलाने वालों के निशाने पर आज मुसलमान है। कल कोई और समुदाय भी हो सकता है। क्योंकि देश जातियों में बंटा हुआ है और जातीय संघर्ष इस देश में चलता रहता है जो एक सच्चाई है।


   ऐसे में यदि देश एकजुट है तो उसका कारण देश का संविधान है। लेकिन जब संविधान ही खतरे में आ जाएगा तो फिर किसी के भी अधिकार सुरक्षित नहीं है। आज मुसलमानों के संवैधानिक अधिकारों को छीनने के प्रयास हो रहे हैं यदि इसमें सफलता मिल गई तो अगला हमला दलितों पर होगा। फिर दलित आरक्षण निशाने पर होगा। इसलिए अभी भी देश के बहुजनों के पास मौका है। वह एकजुट होकर देश के संविधान एवं लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई मिलकर लड़े। यदि चूक गए तो मुसलमानों के बाद कोई भी निशाने पर आ सकता है। इसलिए देश में बहुसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति के खतरों को समझकर इससे लड़ने का संकल्प करना होगा। -डॉ. शहाबुद्दीन खान


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