दिन के गाजी, रात के नमाजी


हज़रत क़तादा (रह., ताबई) कहते हैं कि किसी ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि.) से पूछा : क्या अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के सहाबा हंसते भी थे? उन्होंने कहा : हां, वे हंसते भी थे और ईमान उनके दिलों में पहाड़ की तरह मज़बूत भी था बल्कि पहाड़ से भी अधिक मज़बूत! जिसे किसी प्रकार हिलाया नहीं जा सकता था। बिलाल बिन साद (रह. ताबई) तो कहते हैं कि मैंने सहाबा-किराम को दिन के समय मुक़ाबले की दौड़ लगाते देखा और उन्हें एक-दूसरे से हंसी (मज़ाक़) करते भी पाया है, मगर जब रात आती तो वे सब लोग राहिब (संन्यासी) बन जाते।


(हदीस : मुशकातुल-मसाबीह)


व्याख्या : आमतौर पर ऐसा समझा जाता है कि "अल्लाह वालों” को न हंसना चाहिए, न तीर-कमान और भाला चलाने का अभ्यास करना चाहिए, न इस तरह का कोई और काम करना चाहिए। उन्हें तो किसी जगह एकांत में बैठकर बस अल्लाह, अल्लाह करना चाहिए। इसी वजह से पूछने वाले ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि.) से पूछा। उन्होंने बताया कि हंसनाबोलना, दौड़ में मुक़ाबला करना, तीरकमान और भाला चलाने का अभ्यास करना, दुनियादारी नहीं, यह ख़ालिस दीनदारी है। यही वजह है कि नबी (सल्ल.) के साथी ये सारे काम करते थे। हां, वे रात के अंधेरे में अपने रब से विनती करते, दुआ और मुनाजात करते, नफ़्ल नमाजे पढ़ते और कुरआन मजीद की तिलावत (पाठ) में लीन होते। दिन के ये मुजाहिद, रात में आबिद और तहज्जुदगुजार बन जाते।


नाहक़ बात उन्हें बर्दाश्त न थी


हज़रत अब्दुर्रहमान इब्ने-औफ़ (रजि.) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के साथी तंगदिल थे, तंगजेहन थे। वे लोग तो अपनी मजलिसों गाजी, रात में शेर सुनते और पढ़ते तथा अपने जाहिलियत के दौर की ज़िन्दगी तथा उसका इतिहास अपने सामने रखते। हां, जब उनसे अल्लाह के दीन के मामले में कोई ग़लत मांग की जाती तो गुस्से के मारे उनकी आंखों की पुतलियां इस तरह नाचने लगतीं मानो वे दीवाने हो गए हों।


(हदीस : अल अदबुल-मुफ़रद)


व्याख्या : मतलब यह है कि सहाबा किराम (रजि.) अन्य धर्मों के बुजुर्गों और पेशवाओं की तरह लिए-दिए नहीं रहते थे कि न किसी से बोलें, न किसी से मिलें, हर समय सिर झुकाए ध्यान में मग्न रहें, बल्कि वे बेइन्तिहाई कुशादा जेहन के लोग थे। सबसे मिलते, समय होता तो शेर-शायरी करते, इस्लाम क़बूल करने से पहले के दौर की खराबियों और रीति-रिवाजों की चर्चा करते। हां, जो सिफ़त उनमें सबसे अधिक उभरी हुई थी, वह यह थी कि वे अपने दिल में इस्लाम के लिए बड़ी मुहब्बत और गैरत रखते थे। यदि उनसे कोई हक़ के ख़िलाफ़ काम करने की मांग करता तो उनका पारा चढ़ जाता और गुस्से से आग बबूला हो जाते। हज़रत बक्र इब्ने अब्दुल्लाह कहते हैं कि नबी (सल्ल.) के साथी (तफ़रीह के लिए) खरबूजे के छिलके एक-दूसरे पर फेंकते, मगर जब इस्लाम की हिफ़ाज़त का वक़्त आता तो वे ही संजीदा और बहादुर हो जाते।


(इमाम बुख़ारी-अलअदबुल मुफ़रद)


व्याख्या : इसी सिलसिले में एक अन्य हदीस आती है जिसका मतलब यह है कि सहाबा आपस में हंसीमज़ाक़ करते यहां तक कि ख़रबूजे के छिलके एक-दूसरे पर फेंकतेरसूल की पैरवी इब्नुल-हंजलीया (रजि.) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने के नमाजी फ़रमाया : 'खुरैम उसैदी' बहुत अच्छे आदमी हैं यदि उनके सिर पर बड़े-बड़े बाल न होते और उनका तहमद टखनों से नीचे न होता। जब खुरैम को नबी (सल्ल.) की इस बात का पता चला तो तुरन्त उस्तरा उठाया और अपने बढ़े हुए बालों को कानों तक काट दिया तथा अपने तहमद को आधी पिंडली तक ऊपर उठा लिया।


व्याख्या : कभी-कभार यह तरीक़ा भी तरबियत देने के लिए अपनाया जाता है। नबी (सल्ल.) के साथियों में आप (सल्ल.) की पैरवी का कितना ज़्यादा जज़्बा था, इस हदीस से इस पर भी रोशनी पड़ती है। हज़रत जाबिर (रजि.) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) बनी अम्र इब्ने औफ़ के मुहल्ले में गए। बुध का दिन था। वहां आप (सल्ल.) ने फ़रमाया : ऐ अंसारी लोगों! वे बोले : हां, अल्लाह के रसूल! कहिए, हम ज़ाहिर हैं। आप (सल्ल.) ने फ़रमाया : जाहिलियत के ज़माने में जब तुम अल्लाह की इबादत नहीं करते थे, तब तो कमज़ोरों और बेसहारा लोगों का तुम ख्याल करते थे, गरीबों को अपना धन देते थे तथा मुसाफ़िरों की मदद करते थे। मगर जब अल्लाह ने इस्लाम क़बूल करने और उसके नबी पर ईमान लाने का मौक़ा दिया तो अब तुम लोग अपने बागों की हिफ़ाज़त के लिए उनके इर्द-गिर्द दीवारें उठाते हो! याद रखो! कोई व्यक्ति तुम्हारे बाग़ का फल खा ले तो उसका तुम्हें बदला मिलेगा। यदि जंगली जानवर या चिड़िया खा लें तो इस पर भी तुम सवाब के हक़दार बनोगे। रावी का बयान है कि नबी (सल्ल.) की यह बात सुनकर लोगों ने अपने बागों के दरवाजे ढहा दिए। ये कुल तीस दरवाजे थे (जो इस मौक़े पर) ढहाए गए। (मुस्तरक हाकिम से उद्धृत-अलमुज़िरी)


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