गली का मुफ्ती
फिरोज खान
एक ज़माना था जब पूरे एक शहर का या फिर पूरे मुल्क का एक मुफ्ती होता था। इस्लामी समाज में मुफ्ती की बहुत बड़ी अहमियत है। एक वह शख्स जिसे न सिर्फ कुरान हदीस बल्कि फिकह का व हालात की सही समझ बूझ हो, वह इन उलूम की रोशनी में कोई आर्डिनेंस जारी करता है तो वह मुफ्ती कहलाता है और उसका जारी करदा आर्डिनेन्स फतवा कहलाता है।
आज भी बड़े-बड़े मदरसों में फतवा विभाग कायम किया हुआ है और फतवे की शर्तों को पूरा करने वाले बड़े-बड़े आलिमों की कमेटियां बनी हुई हैं। ये कमेटियां मुस्लिम समाज को दरपेश नित नए नए मसाइल में रहनुमाई देती हैं। इन फतवा देने वाली कमेटियों का विभाग दारूल इफ्ता कहलाता है। ये तो हुई मुफ्ती और फतवों व उनकी कमेटियों की बात जिनकी समाज में अहमियत भी है और समाज को ज़रूरत भी है। लेकिन इस सबके विपरीत आज गली-गली में खुद साख्ता मुफ्ती मिल जाएंगे। इन गली के मुफ्तियों के पास न तो कुरान, हदीस का गहरा इल्म है, न दीनी तकाजों व हालात की समझ बूझ है।
ये गली के मुफ्ती दो चार दिन किसी जाहिल अमीर साहब, पीर साहबया कम इल्म मौलवी साहब की सोहबत में रहकर, उन जैसा लिबास धारण कर स्वयं भू __मुफ्ती बन बैठे हैं। हर किसी को छोटी-छोटी बात पर मुनाफिक का, कुफ्र का फतवा लगाना. हराम हलाल की अपनी मनमर्जी से व्याख्या करना इनका शैवा बन गया है। अपने मसलक व अपनी जमात के दायरे से बाहर के मुसलमान इन स्वयं भू जाहिल गली के मुफ्तियों का रोज का फैशन बन गया है। अपने इल्म, अपने अमल व अपनी और अपने अहलो अयाल की जिन्दगियों पर नज़र डालने की इन्हें फुर्सत नहीं है। इन खुद साखा मुफ्तियों की कल तक क्या ज़िन्दगी थी, उस पर भी नज़र डालकर ये गली के मुफ्ती शर्म महसूस नहीं करते।
इन स्वयं भू मुफ्तियों को नए शेर नज़र करता हूं
"कल तक जो नालियों में मेंढक पकड़ा करते थे,
वही आज दरिया की मछलियों पर नज़र जमाए हुए हैं।"
इन जाहिल व गंवार टाइप के स्वयं भू मुफ्तियों को अगर कभी मस्जिद का मेम्बर तकरीर के लिए मयस्सर आ जाए तो ये और ज्यादा चहकने लगते हैं। ये खुद साख्ता । (स्वयं भू) मुफ्ती मस्जिद के मेहराब की सीढ़ियों से अपना मसलकी या जाति बुग्ज़ व कीना निकालकर अपने दिल व दिमाग को दुनिया में जारी तस्कीन देते और आख़िरत में जहन्नुम भी आग हासिल करने का सौदा करते नज़र आते हैं। बड़े ऐसे स्वयं भू मुफ्ती अपने चहेते मुश्रिक नेताओं, सट्टेबाज व जुआखोर एवं सूदखोर मुस्लिमों के साथ दावतें खाते एवं चाय व मशरूब लेते नज़र आएंगे और अपने मुखालिफ नेक व दीनदार अफराद के खिलाफ फतवों की मिसाइलें दागते देखे जा सकते हैं।
अव्वलीन दौर के एक मुकदमे की चर्चा करना मुनासिब होगा जिसे पढ़कर पाठक हमारे दौर के स्वयं भू गली के मुफ्तियों की इल्मी लियाकत का अन्दाज़ा कर सकें। एक मरतबा काज़ी इब्ने अबी मिल लैला की अदालत में एक दीवानी औरत का मुदकमा आया। उस औरत ने एक आदमी को दो ज़िनाकोश का बेटा कह दिया था। काजी साहब ने उस औरत को इल्ज़ाम लगाने के कारण जो सज़ा सुनाई वो ये थी-
(1.) मस्जिद में खड़ी हालत में एक साथ दो हदें __(सज़ाएं) जारी की जाएं। ये बात जब इमाम अबू हनीफा तक पहुंची तो आपने कहा- काजी ने इस फैसले में छ: गलतियां की हैं जो इस तरह हैं1. मस्जिद में सजा देने को कहा है, जो गलत है, क्योंकि मस्जिद सजा देने की जगह नहीं है।
(2). औरत को खड़ी हालत में सजा देना भी गलत है। उसे बैठा देना चाहिए।
(3). एक साथ दो सजाएं देना भी नहीं मुनासिब नहीं। उसूल यह है कि कल अगर किसी शख्स ने एक बड़े गिरोह की भी तौहीन की हो तो सज़ा एक ही
(4). लगातार दो सजाएं नहीं दी जा सकती। दूसरी सजा उस वक्त देना चाहिए जब पहली सज़ा का असर कम हो जाए।
(5). पागलों पर कोई सज़ा नहीं है।
(6 जिसको जानी (व्याभिचारी) कहा था, उन्होंने खुद आकर शिकायत नहीं की थी।