देश के लोकतंत्र पर भी कोरोना जैसा खतरा!


आज जैसा खतरा लोगों को कोरोना वायरस से है, वैसा ही खतरा देश के लोकतंत्र पर भी मंडरा रहा है।


             कोरोना वायरस ने दुनियाभर के लोगों के सामने एक बड़ा खतरा खड़ा कर दिया है। देश की हाल में घटी घटनाओं का विश्लेषण करेंगे तो आपके खुद समझ आ जाएगा कि देश के लोकतंत्र पर भी कोरोना जैसा खतरा मंडरा रहा है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश को केन्द्र की भाजपा सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य से मनोनीत किया। हालांकि उनकी नियुक्ति में किसी तरह के कानून का उल्लंघन नहीं हुआ है।


      लेकिन खुद गोगोई ने अपने एक फैसले में टिप्पणी करते हुए कहा था कि यदि कोई न्यायाधीश अपने रिटायरमेंट के बाद सरकार से कोई लाभ लेता है तो वह लोकतंत्र पर काला धब्बा है। उनके साथी पूर्व न्यायाधीश खुद उनकी नियुक्ति पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि अब लोकतंत्र का अंतिम स्तम्भ भी ढह गया है। यह सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि उन्होंने मुख्य न्यायाधीश रहते जो फैसले किए थे उन्हें अब संदेह की नजर से देखा जा रहा है।


               बाबरी मस्जिद के फैसले पर लोग पुनः समीक्षा तक की मांग कर रहे हैं। क्योंकि उन्होंने अपने फैसले में पहले उसे मस्जिद माना, फिर 1949 में जबरन रखी गई मूर्तियों को अपराधी कृत्य माना फिर आगे 6 दिसम्बर 1992 में मस्जिद को शहीद करने को भी अपराधिक कृत्य माना और अन्त में मस्जिद का मालिकाना हक उन्हें ही दे दिया जिनको उन्होंने अपराधिक कृत्य के लिए जिम्मेदार माना था।


                  ऐसे अब बड़ी संख्या में लोग सवाल खड़ा कर रहे हैं कि क्या यह फैसला सरकार के निर्देश पर दिया गया था और उसी के इनाम में उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया है। राफेल विमान सौदे में उनके फैसले पर जैसा भी सवाल उठने लगे हैं। हर तरफ से मांग उठ रही है कि उनके दिए गए फैसलों की समीक्षा होनी चाहिए। इस मांग से साबित होता है कि लोगों के बीच न्यायपालिका की निष्पक्षता को लेकर सन्देह पैदा होने लगा है। यदि जनता किसी देश की न्यायपालिका में संदेह करने लग जाए तो फिर समझ जाना चाहिए कि देश में लोकतंत्र खतरा पैदा होना शुरु हो गया है। विधायिका और कार्यपालिका पर से तो लोगों को भरोसा पहले कम होता जा रहा था लेकिन मीडिया पर और खिलाफ न्यायपालिका पर विश्वास था लेकिन गत कुछ सालों में पहले भी मीडिया ने अपनी विश्वसनीयता खोई और इस हद तक खोई कि जनता के एक बड़े तबके ने टीवी देखना ही बंद कर दिया। लेकिन जनता का । न्यायपालिका पर भरोसा था।


साधारण नागरिक भी जब हर तरफ से मायूस होता था तो कहता था कि मैं तुझे कोर्ट में देख लूंगा यानि उसे भरोसा रहता था कि कोर्ट में उसके साथ न्याय होगा। न वहां नेताओं का दबाव चलेगा और न ही धन बल से उसे न्याय मिलने से रोका जा सकता है। लेकिन गोगोई की राज्यसभा में दे नियुक्ति के बाद अब उसकी निष्पक्षता पर संदेह होने लगा है। यह संदेह लोकतंत्र पर कोरोना के खतरे से भी बड़ा खतरा है। क्योंकि यदि जनता के मन में यह बात बैठ जाए कि न्याय मिलना संभव नहीं है।


                      देश कानून से नहीं चल रहा है बल्कि कुछ लोगों की इच्छा से सब कुछ हो रहा है तो यह सोचकर लोकतंत्र के लिए खतरे का संकेत है। क्योंकि देश जनता के भरोसे चलता है। जब उसे भरोसा रहता है कि देश में कानून का राज है तो उस देश में फिर सरकार के निर्णयों का सम्मान होता है और कभी भी वहां पर अराजक स्थिति पैदा नहीं होती है। इस नियुक्ति के अलावा दिल्ली हिंसा के बाद गृहमंत्री ने संसद में जिस तरह से बयान दिए उससे भी लगता है कि देश के लोकतंत्र पर खतरा है। उन्होंने संसद में एक बार भी नहीं कहा कि उन पुलिस वालों के लिए खिलाफ कार्यवाही होगी जो खुलेआम दंगाइयों का साथ दे रहे थे या उन पुलिस वालों पर कठोर कार्यवाही होगी जो समुदाय विशेष के घायल लोगों को पीट- पीट कर जन गण मन गवा रहे थे। उन्होंने उन लोगों पर भी कार्यवाही की घोषणा नहीं की जिनके जहरीले भाषणों के कारण दिल्ली में हिंसा हुई थी।


                गृहमंत्री ने इसी मामले में देश को गुमराह __नहीं किया बल्कि एनपीआर के मामले में देश की जनता को गुमराह किया जबकि इसको लेकर पूरे देश में लोग सड़कों पर हैं लेकिन गृहमंत्री जनता को गुमराह करते हुए राज्यसभा में घोषणा कर दी कि एनपीआर में कोई कागज नहीं मांगा जाएगा। किसी के आगे डी नहीं लिखा जाएगा। जबकि गृहमंत्री जानते हैं कि देश उनके भाषणों से नहीं चलता है और जिस तरह 2003 के नागरिकता कानून के तहत एनपीआर करवाई जा रही है, उस कानून में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि जिसकी सूचनाएं अधूरी होगी उसके नाम के आगे उपरजिस्ट्रार या नायब तहसीलदार के स्तर का अधिकारी डी लिख देगा और फिर उस व्यक्ति को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ेंगे और धर्म विशेष के लोगों के साथ सरकारी तंत्र का कैसा रवैया रहता है यह किसी से छिपा हुआ नहीं है।


                      यदि इन सारी बातों का बारीकी से विश्लेषण किया जाए तो आसानी से समझ में आएगा कि देश में लोकतंत्र कितना मजबूत है और देश में कितना कानून का राज है। आरबीआई के नियंत्रण में रहते हुए यस बैंक डूब जाता है। इसकी जिम्मेदारी कोई भी लेने को तैयार नहीं है। नेता दिल्ली चुनावों में खुलेआम एक समुदाय के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं लेकिन देश के चुनाव आयोग कि ऐसे लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने की हिम्मत नहीं होती है। जब लोग एफआईआर दर्ज करवाने के लिएन्यायालय जाते हैं तो जज अनुकूल समय का इंतजार करते हैं। समझ में नहीं आता है कि यह अनुकूल समय क्या होता है। क्या अनुकूल समय उसे कहा जाएगा जब लोग पूरी तरह से विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से भरोसा उठ जाएगा। एक पार्टी विशेष हर हाल में पूरी सत्ता पर नियंत्रण चाहती है। देश में विधायकों की बोली वैसी लगाई जाती है जैसे जानवरों की मंडी में जानवरों की लगाई जाती है। इन बिकने वाले विधायकों को चुनावों में वोट देने वाला मतदाता खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। उसके समझ में नहीं आ रहा है कि क्या यही लोकतंत्र है। ऐसे ही नेताओं के लिए लोगों ने देश को स्वतंत्र करवाने के लिए कुर्बानियां दी थी। लोकतंत्र पर मंडरा रहे खतरे पर जो भी आवाज उठाता है या तो उसे अर्बन नक्सल घोषित कर दिया जाता है या उसे टुकड़ेटुकड़े गैंग का सदस्य बता दिया जाता है।


                        विरोध की आवाज उठाने वाला यदि मुसलमान है तो उसे आतंकी या जेहादी घोषित कर दिया जाता है और इन सबके बाद भी कोई व्यक्ति खामोश नहीं होता है तो फिर सीबीआई और ईडी को उसके पीछे लगा दिया जाता है इसलिए जनता को समझना चाहिए कि जैसे कोरोना जनता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बनकर सामने आया है, वैसा ही वायरस लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर रहा है इसलिए जिस एकजुटता से हम कोरोना वायरस से लड़ने का प्रयास कर रहे हैं। उसी एकजुटता से लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने वाले वायरस से लड़ने का सामूहिक प्रयास करना चाहिए। क्योंकि लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा तब ही नागरिक रूप में अधिकार सुरक्षित रहेंगे और तब ही एक नागरिक के रूप में हमारी गरिमा बच पाएगी। इसलिए हमें अब लोकतंत्र को खतरा पहुंचाने वाले वायरस को भी पहचानना चाहिए।


-डॉ. शहाबुद्दीन खान


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