इमाम हुसैन की मोहब्बत ही हमारी पहचान


                        हुजूरे अकरम (स.अ.व.) के प्यारे नवासे हज़रत इमाम हुसैन की जाते मुबारक किसी तआरुफ (परिचय) की मोहताज नहीं है। इंसानियत के यह वो अज़ीम रहबर व रहनुमा हैं। जिन्होंने इंसानियत की बक़ा (हमेशा की जिन्दगी) और इस्लाम की हिफाजत (सुरक्षा) और अल्लाह तआला की वहदानियत (एक होने) को मनवाने के लिए अपने पूरे खानदान और तमाम साथियों की कुरबानी पेश करके बड़ी मिसाल पेश की जो हमेशा याद रखी जाएगी। हज़रत इमाम हुसैन 3 शाबान 4 हिजरी को मदीने शरीफ़ में पैदा हुए, नबी-ए-करीम की आगोश (गोद) में परवरिश पाई और प्यारे नबी हमेशा प्यारे नवासे को सीने से लगाकर गले का बोसा लिया करते थे। हुजूरे अकरम की यह हदीसे पाक “हुसैन मुझ से और मैं हुसैन से हूं खुदाया तू उसे दोस्त रख जो हुसैन को दोस्त रखे तू उससे दुश्मनी कर जो हुसैन से दुश्मनी रखे।" ___28 सिफर 11 हिजरी को जब प्यारे नबी अपने मालिके हकीकी से जा मिले (आपने पर्दा फ़रमा लिया) तो उसी साल इमाम आली मकाम अपनी मां की मोहब्बत से भी महरूम हो गए और आपको अपने वालिद हज़रत अली से तालीमाते खुदा अता हुई। 21 रमजान 40 हिजरी को आपकी (अली- ए-मुर्तजा) शहादत के बाद इमाम हुसैन के सर पर जिम्मेदारी आ गई और आपने (इमाम हुसैन) यह जिम्मेदारी उठाने में कोई कसर न छोड़ी। 28 सिफर 50 हिजरी को इमाम हसन की शहादत भी आपके सामने एक मुसीबत का पहाड़ बनकर सामने आई। आपने बड़ी हिम्मत व सब्र के साथ इन हालात का खुदा की मर्जी के मुताबिक (अनुसार) सामना किया। आपने जो भी पैगाम दिया कुरान व हदीस की रोशनी में दिया। जब 40 हिजरी में अमीर मुअविया के इंतेकाल के बाद यजीद जो गुनाहों का एक मजमूआ था खलीफा बन बैठा और उसके ज़माने से ही इस्लाम का एक खतरनाक दौर शुरु हो गया। यह दौर पूरी उम्मत के लिए एक मनहूस साबित हुआ। यजीद ने खलीफा बनते ही मदीने पाक की तरफ अपना रुख किया और इमाम हुसैन जैसी आला शख्सियत से बैत का तलबगार हुआ। कुछ ऐसे जुल्म किए कि इमाम हुसैन को अपना वतन मदीना छोड़ना पड़ा। आपने यह क़दम सिर्फ इसलिए उठाया, कि मदीने पाक को खने खराबे से बचाया जा सके। 28 रजब 60 हिजरी को आप मदीने से आंखे नम लिए मक्का पहुंचे, मगर वहां भी हालात खराब महसूस हुए और आपने मक्का को भी यह कहते हुए छोड़ा कि मैं किसी फितना फसाद और जुल्म के लिए नहीं निकला हूं बल्कि मैं अपने नाना की उम्मत की इस्लाह (सुधार) के लिए निकल रहा हूं।


        रास्ते में हज़रत मुसलिम बिन अकील की रास्ते में हज़रत मुसलिम बिन अकील की शहादत की खबर आपको मिली तो आपने अपने चाहने वालों से फ़रमाया कि हम लोग हुकूमत व माल हासिल करने के लिए नहीं जा रहे बल्कि शहादत हासिल करने के लि जा रहे हैं। जो हाल मुसलिम बिन अकील का हुआ है वही हाल हमारा भी होगा। हमारे गले से मौत लिपटी है जो मौत पर सब्र करे वो हमारे साथ आए। और आखिरकार 2 मोहर्रम 61 हिजरी को कर्बला में तशरीफ लाए। 60 हजार दिरहम में बनी असद के कबीले से ज़मीन खरीद कर नहरे फरात के किनारे अपने खेमे लगाए। एक ही रात गुजरी थी कि 3 मोहर्रम की तारीख को एक यजीदी लश्कर कर्बला में दाखिल हुआ और इमाम हुसैन के खेमों कों दरिया से बहुत दूर हमारी पहचान लगाने का फरमान जारी कर दिया गया। इमाम हुसैन ने सब्र का मज़ाहिरा किया और अपने खेमों को किनारे से हटाकर दूर लगाए। रोज़ बरोज यजीदी फौज की तादाद बढ़ती गई और आले रसूल पर पानी बंद कर दिया गया। 7 मोहर्रम से इमाम हुसैन और उनके तमाम घर वाले व साथी प्यासे रहे। रसूल के खानदान के बच्चे प्यास से तड़पते रहे जिस तरह मछली बिना पानी के नहीं रहती है मगर अल्लाह के इन प्यारे बंदों की प्यास की शिकायत किसी से नहीं की। कर्बला में 9 मोहर्रम का दिन गुजरा आशूरा की रात आई, यह रात कर्बला के मुजाहिदों की आखरी रात कहलाती है। इमाम हुसैन और उनके साथ बच्चे औरतें रातभर अल्लाह की इबादत में मशगूल रहीं। खेमों से तसबीह की आवाजें आ रही थी। शबे आशूर के गुजरने के बाद इस मोहर्रम को बड़ी शिद्दत से था (क्योंकि इस दिन की खबर इमाम हुसैन को अपने नाना रसूले करीम) से बचपन में ही मिल गई थी। आशूरा का दिन रसूले अकरम के खानदान का गुलशन इसी दिन उजड़ गया था। इमाम हुसैन के साथियों की तादाद 72 थी जो हक पर थे और झूठ के साथ थे वो बेहिसाब थे मगर इमाम हुसैन के तीन दिन के भूखे प्यासे सिपाहियों ने वो जंग की जिसकी मिसाल नहीं मिलती। इमाम हुसैन का हर सिपाही अपने आप में एक फौज की तरह था। इमाम हुसैन चाहते तो जंग का नक्शा पल में पदल जाता, पानी खुद चलकर आ जाता मगर इमाम हुसैन को सब्र से काम लेना था। अपने नाना से किए वादे को निभाना था। इसलिए इमाम हुसैन ने सिर्फ उतनी ही जंग की कि दुनिया यह न कह दे कि इमाम हुसैन अपनी मजबूरी की वजह से क़त्ल हो गए। नमाजे जोहर का वक्त आया तो इमाम हुसैन ने अपने छोटे से लश्कर के साथ तीरों की बारिश में नमाज पढ़ी और यह बता दिया कि नमाज़ किसी भी हाल में छोड़ी नहीं जा सकती। जब सारे साथी आपके शहीद हो गए तो आप तमाम घर की औरतों को अल्लाह के हवाले करके मैदान में पहुंचे और यजीदी फौज से खिताब करते हुए फरमाया "ऐ यजीद की फौज तुम मेरे खून से क्यों अपने हाथों को रंगीन करना चाहते हो? क्या मैंने हराम को हलाल और हलाल को हराम कर दिया है, आखिर क्यों मेरे क़त्ल पर आमादा हो गए हो? मैं अल्लाह के आख़री रसूल मोहम्मद मुस्तुफा स.अ.व. का नवासा हूं अली व फातिमा का बेटा हूं मेरे क़त्ल से बाज आओ।" इमाम की इन बातों का यजीदी फौज पर कुछ असर नहीं हुआ और जंग पर तैयार रहे। आखिर में शेरे खुदा का लाल नवासा-ए-रसूल बड़ी दिलेरी से असर के वक्त लड़ते रहे और असर के वक्त सज्दे के आलम में इमाम हुसैन को शहीद कर दिया गया। इमाम हुसैन जैसे ही शहीद हुए आसमान से खून का बारिश होने लगी। दरिया का पानी उछलने लगा, आंधिया चलने लगी। फज़ा में यह आवाज गूंजी “हुसैन कर्बला में क़त्ल कर दिए गए, हुसैन कर्बला में जिब्हा हो गए।" आज जो हम इस्लाम का नाम ले रहे हैं जो हम मुसलमान है वो हुसैन का ही बचाया हुआ दीन है। आपकी कुर्बानी ने ही हमें यह मकाम अता किया है। मगर हमें अपने किरदार और अपनी जिन्दगी का जायजा लेना चाहिए कि क्या हम इमाम हुसैन की मोहब्बत का दम तो भर रहे हैं मगर आपकी तालीमात-सब्र व रजा-ए-खुदा में कितना काम कर रहे हैं। अल्लाह हमें हुसैन सी जिन्दगी बनाने की तौफीक़ नसीब फरमाए।


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