जिन्दगी जब चली खुद ज़हर टूढ़ने
आज दरिया चली खुद लहर दूढ़ने,
तल्खियों में बसा खुश शहर ढूढ़ने।
आज आबो-हवा है निराली बहुत, ।
जिन्दगी जब चली खुद ज़हर ढूढ़ने
सब मसीहा अमन के बने फिर रहे,
है चला जब अमन खुद बशर ढूढने।
ख्वाब पाले, बढ़े तिस्नगी से सजे,
रूह को दे सुकू वो दहर ढूढ़ने दौर है
बे-अदब शानो-शौक़त का ये,
सादगी में चले सब कहर ढूढ़ने
आदमी,आदमी के गले मिल रहा,
'अपने काटे का ज़िन्दा असर'
तोड़ती साँस अब सादगी कह रही,
दफ़्न हो मैं चली खुश-ज़िगर ढूढ़ने
पेश्कर्दा : फरहान इसराइली