शेर शाह सूरी : बहादुर योद्धा और काबिल सुल्तान जो महान होते-होते रह गया
माना जाता है कि किस्मत शेर शाह का थोड़ा और साथ देती तो हिंदुस्तान का इतिहास कुछ और ही होता। भारत का इतिहास आम से खास शख्सियतों की कहानियों से भरा पड़ा है। इनमें से कई ऐसे मुस्लिम शख्स रहे जिन्होंने अपनी सल्तनत तक खड़ी कर ली। शेरशाह सूरी भी उन्हीं में से एक थाबिहार की सरजमीं ने कई शासकों को उत्पन्न किया, जिन्होंने अपने अदम्य साहस और बुद्धि से ना सिर्फ बिहार बल्कि लगभग समूची दुनिया पर शासन किया। चंद्रगप्त मौर्य हों या बिंदसार, या फिर सम्राट अशोक, सभी ने जिद की और अपना नाम इतिहास में दर्ज कराया। ऐसा ही एक शासक शेरशाह सूरी हुआ, जिसने अपनी ताकत और दिमाग से ना सिर्फ भारत में बल्कि अफगान तक अपने शासन का विस्तार किया। शेरशाह सूरी का वास्तविक नाम फरीद खान था। वह पंजाब प्रांत के वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई. में) में अपने पिता हसन की अफगान पत्नी से पैदा हुआ था। पिता हसन बिहार के सासाराम के जमींदार हुआ करते थे। संबंध रखते थे, इनके दादा इब्राहीम खान सरी अपने बेटे हसन खान के साथ अफगानिस्तान से भारत आकर बस गए थे। और इसी के बाद भारत में शेरशाह सूरी ने अपना परचम लहराया और मुगलों को धूल चटाई, लेकिन कैसे। आखिर कैसे शेरशाह दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने में सफल हो गया, कैसे उसने मगल साम्राज्य से टकराने की हिम्मत जुटाई।
'फरीद' था बचपन का नाम
बात 1480 ई. के आसपास की है। इस समय तक हिन्दोस्तान के एक बड़े हिस्से पर लोदी वंश के सुल्तान बहलोल लोदी की हुकूमत चलती थी। वहीं, भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना करने वाला उज्बेक शासक बाबर समरकंद को जीतने के लगातार प्रयास कर रहा था। यही वह समय था जब शेरशाह सूरी का जन्म हुआ। शेरशाह के दादा अफगानिस्तान के नारनौल के जमींदार हुआ करते थे, हालांकि वह भारत आकर रहने लगे और यहां बिहार में आकर बस गए। यहां उन्होंने बिहार के सूबेदारों के काम किया और जल्द ही उनके वफादार बन गए। इसी के चलते उन्हें कुछ जागीरें भी प्राप्त हो गईं। बहरहाल, शेरशाह के जन्म के बाद उसका नाम फरीद रखा गया।
मिली 'शेर खां' की उपाधि!
फरीद बड़ा हुआ, दादा मर चुके थे, फिर भी बाप के पास बहुत जागीर थी। खैर फरीद का बचपन ज्यादा अच्छा नहीं गुजरा। उसकी सौतेली मां उसे बड़े होने के अधिकारों से हमेशा दूर रखती थी, और उसे अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए काफी जूझना पड़ा। बाप के कई औरतों के साथ संबंध थे। फरीद की सौतेली मां उससे और उसकी मां से जलती थीं, क्योंकि फरीद सभी बच्चों में सबसे बड़ा था और वहीं जागीर का असली मालिक भी था। ऐसी स्थिति में फरीद का अपने बाप के प्रति नफरत का भाव रखना लाजमी था। युवा अवस्था आने तक वह बहुत महात्वाकांक्षी या। फराद खुद का पिता का बड़ा जागीर का उत्तराधिकारी मानता था। बचपन से अभावों में गुजरी जिंदगी ने फरीद को असंतोष से भर दिया और वह अपने बाप को छोड़कर लगभग 15 साल की अवस्था में जौनपुर चला गया। जहां उसने वहां के सूबेदार जमाल खां के यहां नौकरी की, हालांकि वहां भी उसका मन नहीं रमा और वह यहां वहां भटकता रहा। और एक दिन उसके बाप की भी मौत हो गई। इसके बाद वह अपनी पैतृक जागीर पाने के लिए फड़फड़ाने लगा। साल बहुत बीत चुके थे, इसलिए उसे जागीर पाने में दिक्कत हुई, लेकिन फिर भी उसने आगरा के शाही दरबार से राजकीय फरमान प्राप्त कर जागीरों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद वह 1522 ई. में बिहार के शासक बहार खां लोहानी के दरबार में हाजिरी देने लगा। यहां कहीं हद तक फरीद संतुष्ट था, उसने अपने मालिक की पूरी शिद्दत के साथ सेवा कीईमानदारी और मेहनत के कारण उसने बहार खां की कृपा दृष्टि पा ली। कहा जाता है कि इसी दौरान उसने अकेले ही एक शेर को मार डाला था। फरीद की ताकत और उसके साहस के कारण बहार ने उसे शेर खां की उपाधि दे दी।
साम्राज्य विस्तार
अब शेर खां बहार खां का काफी विश्वास पात्र बन गया लेकिन एक दिन बहार खां की मौत हो गई और शेर खां ने उसकी विधवा 'दूदू बेगम' से शादी कर लीइस समय तक शेर खां की उम्र तकरीबन 40 साल थी और इसके बाद भी उसने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए कई विधवा औरतों का सहारा लिया और उनकी जागीरों में कब्जा कियाऐसा ही एक मामला चनार के किले के कमानदार का था, वह मारा गया तो उसके पुत्र की विधवा लाड मलिका से उसने विवाह कर लिया और चुनार के किले समेत उसकी सारी संपत्ति पर अधिकार कर लिया।
हुमायूं की गुलामी
1526 ई. में जहीरूद्दीन बाबर ने भारत पर हमला किया और इब्राहिम लोदी को हराकर मुगल साम्राज्य की नींव रखी और 1530 ई. में बाबर की मौत के बाद उसका बेटा हुमायूं मुगल बादशाह बना। हमायं ने 1531 ई. में आक्रमण के उद्देश्य से चनार किले को घेरा लिया, लगभग 4 महीने तक लगातार किले की घेराबंदी रही। शेर खां इस फालतू के युद्ध में अपना समय और सैन्य बल को खर्च नहीं करना चाहता था। बड़ी चतुराई के साथ उसने हुमायूं के साथ समझौता कर उसकी अधीनता तो स्वीकार कर ली लेकिन बदले में उससे चुनार के किले पर अपना अधिकार मांग लिया। बहरहाल, दोबारा से चुनार के किले पर शेर खां का कब्जा हुआ और मुगल मुसीबत भी उसके सर से टल गई। मगलों से शेर खां का पहला मुकाबला हो चुका था जिसका अंदेशा उसे पहले से था। इसके बाद तो उसने अपनी सैन्य ताकत को दुगना करने पर जोर दिया और अपनी शक्ति व संसाधनों में वृद्धि की।
शुरू हुआ जीत का सिलसिला
बिहार की जागीर मुगलिया सल्तनत के अधीन थी, जाहिर था कि शेर खां भी हुमायूं के मातहत था। समझौते के अनसार शेर खां ने राजस्व और सैन्य सहायता मुगल बादशाह को देना जारी रखा, लेकिन मन ही मन उसकी स्वतंत्र राज्य कायम करने की इच्छा प्रबल होती जा रही थी। मुगल शासन उसकी आंखों में खटक रहा था, वह कैसे भी भारत को मुगलों से मुक्त देखना चाहता था। और इसके लिए उसने बिहार में अपनी जागीर पर स्वतंत्र ढंग से शासन करना प्रारंभ कर दिया। अब उसकी नजर अपने पड़ोसी राज्य बंगाल पर थी, जहां का सूबेदार हुसैन शाही साम्राज्य का अंतिम सुल्तान गयासुद्दीन महमूद शाह था। शेर खां ने 1538 ई. में बंगाल पर आक्रमण कर शाह को हराकर उसे 1,300,000 दीनार देने के लिए विवश कर दिया। शेर खां का मुगल सल्तनत के किसी हिस्से पर ये पहला आक्रमण थाइससे लडाई सीधी मुगल बादशाह हुमायूं से होनी तय थी।
लिहाजा यहीं से हुमायूं और शेर खां के बीच सीधे टकराव का सिलसिला शुरू हो गया और नाम पडा शेरशाह सूरी अब वक्त आर-पार की लड़ाई का थाशेर खां ने अपने बेटे जलाल को चुपचाप हुमायूं के खेमे से भाग जाने का हुक्म दे दिया। जैसे ही ये खबर हुमायूं को मिली वो सकते में आ गया और आनन- फानन में उसने भी अपनी सेना के साथ बिहार की ओर कूच किया। योजना तो पूरी शेर खां की बनाई हुई थी, और इसमें हमायूं फंस गया। उसके पास एक अच्छी सेना थी लेकिन हुमायूं भी कमजोर न था, लेकिन शेर खां मुगलों की कमजोरियों से भलीभांति परिचित था। वह जानता था कि मुगलों की सबसे बड़ी कमजोरी शराब और शबाब है। इसलिए जब हुमायूं की सेना गंगा की तराई में शराब और शबाब के रंग में डूबी थी, तभी भरी बरसात में शेर खां ने उन पर हमला कर दिया। अचानक हुए इस हमले से मुगलों में हाहाकार मच गया और उनके शिविर पानी से नष्ट हो गए। उनके तीरंदाज ढंग से धनुष भी नहीं पकड़ पा रहे थे। नतीजतन हुमायूं को बड़ी हार मिली और जीत ने शेर खां के कदमों को चूमा। इस युद्ध में हुमायूं को अपनी जान के लाले पड़ गए और अपनी जान बचाने के लिए उसने किसी तरह से गंगा पार की। ये लड़ाई 26 जून, 1539 ई। को उत्तरी बिहार के चौसा में लड़ी गई थी। और इस जीत के बाद फरीद उर्फ शेर खां ने अपना नाम बदलकर फरीद अल दीन शेरशाह सूरी रख लिया
भारत छोड़ भागा हुमायूं
इस युद्ध के लगभग 9 महीने बाद ही 17 मई, 1540 को बिलग्राम की भयंकर लड़ाई लड़ गई। इस युद्ध में हुमायूं के साथ उसके भाई हिन्दाल व अस्करी भी थे, बावजूद इसके इन्हें फिर से हार का सामना करना पड़ा। इस जीत के साथ ही भारत में मुगल सल्तनत के पांव उखड़ गए और दिल्ली-आगरा पर अधिकार के साथ हिन्दोस्तान पर अफगानों का कब्जा हो गया। शेरशाह से परास्त हो चुके हुमायूं के पास अब सर ढंकने के लिए छत तक नहीं थी। ऐसे में वह अपना मुंह छिपाने के लिए सिंध की ओर चला गया और लगभग 15 साल तक घुमक्कड़ों की तरह से अपना जीवन बिताया। इसी के साथ हिन्दोस्तान मुगलों की गुलामी से आजाद हुआ, हुमायूं हार कर बैठ चुका था और उधर शेरशाह सूरी अभी भी अपनी जीत का परचम लहरा रहा था।
सूरी की शासन प्रणाली
22 मई, 1545 को शेर शाह सूरी की कलिंजर के किले को जीतने के दौरान मौत हो गयी। इस तरह दिल्ली के तख्त पर वह होते रह गया बस पांच साल रह सका। शेर शाह में महानता के सारे लक्षण मौजूद थे और जानकारों का मानना है कि किस्मत अगर उसका थोड़ा और साथ देती तो यकीनन हिंदुस्तान का इतिहास कुछ और ही होता। शेर शाह सूरी ने हिंदुस्तान भर में सड़कें और सराए बनवाईं। सडकों के दोनों तरफ आम के पेड़ लगवाए जिससे चलने वालों को छाया रहे। हर दो कोस पर एक सराय बनवाई गयी। इन सरायों में हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग व्यवस्था का इंतजाम करवाया गया और दो घोड़े भी रखवाए गये जिन्हें हरकारे इस्तेमाल करते। शेर शाह सूरी ने ऐसी कुल 1700 सरायों का निर्माण करवाया। उसने सड़कों पर सुरक्षा व्यवस्था करवाई। मुद्रा के तौर पर उसने 11.53 ग्राम चांदी के सिक्के को एक रुपये की कीमत दी। शेर शाह ने राज्य संचालन के लिए दीवान-ए-वजारत, दीवान-ए- आरिज, दीवान-ए-रिसालत और दीवान-ए-इंशा जैसे विशेष विभाग बनाए। उसका मानना था कि राज्य में तरक्की तभी संभव है जब अमन कायम हो।
उसने मनसबदारी में यह तय करवाया कि सैनिकों की संख्या निश्चित हो, उनको समय पर वेतन मिले और जरूरत पड़ने पर मनसबदार अपने सैनिक सुल्तान के सेवा में भेजे। शेर शाह सूरी मानता था कि किसान ही किसी मुल्क का आधार होते हैं। उसने किसानों के लगान को कम किया और उन्हें ज्यादा से ज़्यादा सहूलियतें दीं। उन्हें यह भी आजादी दी गयी कि वे जो चाहे उगायें और जैसे चाहे लगान दें। लगान की राशि तय करके पटवारियों को हिदायत दी गई थी कि तयशुदा रकम से ज़्यादा लगान नहीं वसूला जायेगा। किसानों को उससे सीधे मिलकर अपनी तकलीफ सुलझाने का हुक्म सुनाया गया। शेर शाह सूरी किसानों और रियाया का हमदर्द बनकर उभरा शेर शाह सूरी की काबिलियत का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि अपने पांच साल के शासन में उसने कई ऐसे काम करवाए जिनका अकबर ने भी अनुसरण किया।