अंग्रेज़ो के हाथ पीर अली खान फांसी पर लटक गए पर अपने साथियों का नाम नहीं बताया
1757 ई. से लेकर 1947 ई. तक बिहार में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह चलता रहा। बिहार में 1757 ई. से ही ब्रिटिश विरोधी संघर्ष प्रारम्भ हो गया थायहाँ के स्थानीय जमींदारों, क्षेत्रीय शासकों, युवकों एवं विभिन्न जनजातियों तथा कृषक वर्ग ने अंग्रेजों के खिलाफ अनेकों बार संघर्ष या विद्रोह किया। बिहार के स्थानीय लोगों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ संगठित या असंगठित रूप से विद्रोह चलता रहा, जिनके फलस्वरूप अनेक विद्रोह हुए1857 की क्रांति ने बिहार को भी प्रभावित किया।
बिहार के ही एक प्रमुख मुस्लिम क्रांतिकारी पीर अली के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। वे सिर्फ मुसलमानों के ही नेता नहीं थे, अपितु उन्हें समस्त क्रांतिकारियों का विश्वास एवं समर्थन प्राप्त था। या ये कहें की जिस तरह अज़िमुल्लाह खाँ' के नाम का जिक्र किये बगैर पुरे भारत मे हुए 1857 की क्रांती का इतिहास अधूरा है ठीक उसी तरह 'पीर अली खान' के कारनामो का जिक्र किए बगैर बिहार में हुई 1857 की क्रांती अधुरी है। 1857 ई. के सिपाही विद्रोह में 'वहाबी' लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से विद्रोह में न शामिल होकर अंग्रेजों के खिलाफ लोगों को भड़काने का प्रयास किया। पर पीर अली खान और उनके साथियो ने 1857 में इस आन्दोलन का नेतृत्व किया था, क्योकि वो खुद इससे जुड़े थे इनकी नुमाइंदगी 'उलमाए सादिकपुरीया करते थे।
पीर अली बचपन में ही आजमगढ़ से पटना आकर बस गए थे वो आजमगढ़ के मुहम्मदपुर में पैदा हुवे थेपटना में उन्हें जमींदार नवाब मीर अब्दुल्लाह ने अपने बेटे लुत्फ अली के साथ पाला, और पटना में ही उनकी पढाई पूरी हुई जहां उन्होंने उर्दू, फारसी और अरबी सीखा , आजीविका के लिए उन्होंने नवाब की मदद से किताब ब्रिकी का कारोबार शुरू किया। वे चाहते तो अन्य काम भी कर सकते थे, पर उनका मुख्य उद्देश्य लोगों में क्रांति संबंधित पुस्तकों का प्रचार करना था। वे पहले पुस्तक पढ़ते और इसके बाद दूसरों को पढ़ने के लिए देते थे। वह पुरुष धन्य है, जो अपने ज्ञान को अपने तक ही समिति नहीं रखकर समस्त जनता को लाभान्वित करता है।
पीर अली खान हिंदुस्तान को गुलामियों की बेड़ियों से आज़ाद करवाना चाहते थे। उनका मानना था कि गुलामी से मौत ज्यादा बहेतर होती है। उनका दिल्ली तथा अन्य स्थानों के क्रांतिकारियों के साथ बहुत अच्छा सम्पर्क था। वे अजीमुल्लाह खान से समय-समय पर निर्देश प्राप्त करते थे। जो भी व्यक्ति उनके सम्पर्क में आता, वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था।
वैसे वे साधरण पुस्तक विक्रेता थे, फिरभी उन्हें पटना के कद्दावर लोगो का समर्थन प्राप्त था। क्रांतिकारी परिषद, पर उनका अत्यधिक प्रभाव था। उन्होंने धनी वर्ग के सहयोग से अनेक व्यक्तियों को संगठित किया और उनमें क्रांति की भावना का प्रसार कियालोगों ने उन्हें यह आश्वासन दिया कि वे ब्रिटिशी सत्ता को जड़मूल से नष्ट कर देंगे। जब तक हमारे बदन में खून का एक भी कतरा रहेगा, हम फिरंगियों का विरोध करेंगे, लोगों ने कसमे खाई। वारिस अली की कुर्बानी के बाद सारे प्रांत में क्रांति की लहर फैल गई।
3 जुलाई को पीर अली खान के घर सब मुसलमान इकट्ठे हुए और उन्होंने पूरी योजना तय की। 200 से अधिक हथियारबंद लोगो की नुमाइंदगी करते हुए पीर अली खान ने गुलज़ार बाग मे स्थित प्राशासनिक भवन पर हमला करने को ठानी, जहां से पुरे रियासत पर नज़र राखी जाती थी। गुलाम अब्बास को इंकलाब का झंडा थमाया गया , नंदू खार को आस पास निगरानी की ज़िम्मेदारी दी गई, पीर अली ने क़यादत करते हुवे अंग्रेजो के खिलाफ जोरदार नारेबाजी की पर जैसे ही ये लोग प्राशासनिक भवन के पास पहुंचे, डॉ. लॉयल हिंदुस्तानी(सिख) सिपाहियों के साथ इनका रास्ता रोकने पहुंच गया। डॉ. लॉयल ने अपने सिपहयों को गोली चलने का हुकुम सुनाया, दोतरफा गोली बारी हुयी जिसमे डॉ. लॉयल मारा गया, ये ख़बर पूरे पटना में आग के तरह फैल गई।
पटना के कमिश्नर विलियम टेलर ने भीड़ पर अँधादून गोली बरी का हुक्म दिया जिसके नतीजे में कई क्रन्तिकारी मौके पर ही शहीद हो गए और दर्जनों घायल, फिर इसके बाद जो हुआ उसका गवाह पुरा पटना बना, अंग्रेज़ो के द्वारा मुसलमानों के एक-एक घर पर छापे मारे गए, बिना किसी सबूत के लोगों को गिरफ्तार किया गया, शक के बुनियाद पर कई लोगों क़त्ल कर दिया गया, बेगुनाह लोगों मरता देख पीर अली ने खुद को फिरंगियों के हवाले करने को सोचीइसी सबका फायदा उठाकर पटना के उस वक़्त के कमिश्नर विलियम टेलर ने पीर अली ख़ान और उनके 14 साथियों को 5 जुलाई 1857 को बगावत करने के जुर्म मे गिरफ्तार कर लिया। चूँकि पीर अली खान और उनके साथियो ने 1857 में 'वहाबी' आन्दोलन का नेतृत्व किया था, क्योकि वो खुद इससे जुड़े थे, इनकी नुमाइंदगी 'उलमाए सादिकपुरीया करते थे। इस लिए इनके मदरसे और बस्ती पर बिल्डोजर चला दिया गया और बिल्कुल बराबर कर दिया गया, और सैंकड़ों की तादाद में लोग काला पानी भेज दिए गए। अंग्रेज़ अपनी तरफ से पूरा बन्दोबस्त कर चुका था इसमे उस को कई साल लगे।
कमिश्नर विलियम ने पीर अली से कहा 'अगर तुम अपने नेताओं और साथियों के नाम बता दो तो तुम्हारी जान बच सकती है' पर इसका जवाब पीर अली ने बहादुरी से दिया और कहा 'जिंदगी में कई एसे मौके आते हैं जब जान बचाना जरुरी होता है पर जिंदगी में ऐसे मौके भी आते हैं जब जान दे देना जरुरी हो जाता है और ये वक़त जान देने का ही है।
हाथों में हथकड़ियाँ, बाँहों में खुन की धारा, सामने फांसी का फंदा, पीर अली के चेहरे पर मुस्कान मानों वे सामने कहीं मौत को चुनौती दे रहे हों। महान शहीद ने मरते-मरते कहा था, तुम मुझे फाँसी पर लटका सकते हों, किंतु तुम हमारे आदर्श की हत्या नहीं कर सकते। मैं मर जाऊँगा, पर मेरे खून से लाखो बहादुर पैदा होंगे और तुम्हारे जुम्म को ख़त्म कर देंगे। कमिश्नर टेलर ने लिखा है कि पीर अली ने सजाए मौत के वक्त बड़ी बहादुरी तथा निडरता का एहसास दिलाया।
अंग्रेजी हुकूमत ने 7 जुलाई, 1857 को पीर अली के साथ घासिटा, खलीफ़ा, गुलाम अब्बास, नंदू लाल उर्फ सिपाही, जुम्मन, मदुवा, काजिल खान, रमजानी, पीर बख्श, वाहिद अली, गुलाम अली, महमूद अकबर और असरार अली को बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया था। उनकी मौत की खबर सुनकर दानापुर की फौजी टुकड़ी ने 25 जुलाई को बगावत कर दिया।
शहीद पीर अली खान को याद करते हुए बिहार सरकार के द्वारा 2008 मे हर साल 7 जुलाई को शहीद दिवस के रूप मनाने का फैसला लिया गया था। मौजूदा सरकार आज भी इस बात पर क़ाएम है जो एक अच्छी बात है। लेकिन ये भी सच है की पीर अली खान की मौत का बदला 'उल्माए सदिकपुरिया' ने लिया , अब पूछिएगा कैसे तो सीधा ये सुनए बिहार कि राजधानी अज़ीमाबाद(पटना) के मुजाहिदे आज़ादी 'अहमदुल्लाह' से प्रेरित होकर पंजाब के मुजाहिदे आज़ादी 'अबदुल्लाह' ने कलकत्ता हाई कोर्ट के जज 'छवक्कनारमन' का क़त्ल 1871 मे कर दिया , और खैबर का एक पठान 'शेर अली अफ़रीदी' ने तो 8 फरवरी 1872 मे 'लाड मायो' को क़त्ल कर डाला जो उस वक़त का 'वाईसराय' था और इनसे प्रेरित होकर बंगाल के 2 लाल 'प्राफुल चाकी' और 'खुदिराम बोस' 30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर(बिहार) में जज 'किंगभेंड' को क़त्ल करने निकले पर गलत जगह हमला करने कि वजह से जज बच गया और उसकी बेटी और पत्नी मारी गई। खुदीराम बोस तो मुजफ्फरपुर में पकडे गए पर प्रफुल्ला चाकी रेलगाड़ी से भाग कर मोकामा पहुंच गए। पर पुलिस ने पूरे मोकामा स्टेशन को घेर लिया था दोनों और से गोलियां चली पर जब आखिरी गोली बची तो प्रपुल्ला चाकी ने उसे चूमकर खुद को मार लिया और शहीद हो गए , पुलिस ने उनके शव को अपने कब्जे लेकर उनके सर को काटकर कोलकत्ता भेज दिया ,वहां पर प्रफुल्ला चाकी के रूप में उनकी शिनाख्त हुई ये बात उस वक़त की है जब चंद्रशेखर आजाद सिर्फ 2 साल के थे। 'प्रफुल्ल चाकी' से ही प्रेरित हो कर 'चंद्रशेखर आज़ाद' ने खुद को अंग्रेज़ो के हवाले ना करके 27 फरवरी 1931 को खुद को गोली मार ली और शहीद हो गए पर अंग्रेज़ के हाथ नहीं आए।