व्यवस्था बदलने की जरुरत

  


डॉ. सत्यनारायण सिंह आई.ए.एस. (आर.)


        देशी रियासतों व सामंती ठिकानों से निर्मित राजस्थान, देश के ऐसे राज्यों की लिस्ट में है जहां दलित अत्याचार की सर्वाधिक रिकार्डेड घटनायें हुई है। उसके बाद बिहार, उड़ीसा, गुजरात का नम्बर आता है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति पर अत्याचारो के मामलों में राजस्थान का देश में दूसरा स्थान है परन्तु यदि अत्याचारों की संख्या पर नजर डाली जाए तो उसमें भी प्रथम स्थान है। अनुसूचित जाति पर अत्याचारों का प्रतिशत 53 एवं अनुसूचित जनजाति पर 27.8 प्रतिशत है। प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट 1955, अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून 1989, राजस्थान काश्तकारी कानून की पालना कराने में प्रशासन पूर्णतया सफल नहीं रहा है। सामाजिक जड़ता के कारण आजादी के बाद बनाये गये दलित उत्थान व अत्याचार निवारण कानून जातीय व्यवस्था की कटता व अत्याचारों को समाप्त करने में अथवा परिवर्तन लाने में सफल नहीं हए है। सुखद स्थिति यह है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने पुलिस को एफआईआर दर्ज करने के सख्त आदेश दिये है एवं राज्य सचिवालय एवं पुलिस हैडक्वाटर स्तर पर विशेष प्रबंध किए हैं।


       हर गांव, हर तहसील में दलितों की जमीनों पर नाजायज कब्जे करने, आंवटी को जमीन पर कब्जा नहीं करने देने के मामलों की संख्या अधिक है और हमारा प्रशासन ऐसी घटनाओं को रोकने में असमर्थ सिद्ध हो रहा है दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने पर विरोध व अत्याचारों का सामना करना पड़ता है। राजस्थान में दलित को आज भी घोड़ी पर बैठने नही दिया जाता। ग्रामवासियों के अत्याचार व धमकी के कारण अतजातीय विवाह करने वाले युवक को गांव छोड़ने को बाध्य होना पड़ता है।


       प्रदेश में आज भी कई स्थानों पर सार्वजनिक कुंए, हैण्डपंप से पानी नहीं भरने दिया जाता। व्यवस्था बदलने विवाहो की तो कल्पना करमत के घाट उतार दिया सार्वजनिक स्थानों, ग्राम पंचायत भवन, ग्रामीण चौपाल, मंदिरों आदि जगहों पर प्रवेश नहीं करने देने की घटनाओं से स्पष्ट है कि दलित मानव गरिमा व स्वाभिमान प्राप्त करने को आज भी छटपटा रहा है। चुनावों के अवसर पर राजनेता, दलितों की बस्तियों व मौहल्लों में जाते है। दलित की झोपड़ी में जाकर रूखी रोटी खाते है, दंडवत प्रणाम करते है। चुनावों के पश्चात यही राजनेता अपना रंग बदल लेते है। दलितों को मुख्य धारा में लाने, छुआछूत समाप्त करने का कोई प्रयत्न नहीं करते। समय-समय पर होने वाली विभत्स घटनाओं पर भी उनका व प्रशासन का ध्यान नहीं जाता।


       वर्तमान में जातियों के बीच उतनी ही दूरी बनी हई है, जितनी कई दशक पूर्व थी। ग्रामों में दोनों की अलग-अलग बस्तियां है, अलग-अलग कुऐं है, अलग-अलग शमशान भूमि, अलग-अलग चौपाले है। दलितों की बस्तियां सकडी गलियों में है, उनके घरों की दशा भी दयनीय है। उच्च और निम्न जातियों के बीच सामाजिक सम्पर्क नही है। अन्तर्जातिय विवाहो की तो कल्पना करना व्यर्थ है, यदि ऐसा हो जाता है तो उस जोडे को मौत के घाट उतार दिया जाता है, अथवा गांव छोड़ने को मजबूर किया जाता है। आये दिन अखबारों में छपता रहता है, अमुक स्थान पर दलित परिवार ने धर्मान्तरण कर लिया अथवा अत्याचारों के कारण गांव छोड़ना पड़ा।


       आज भी वीभत्स व घृणित घटनाएं होती रहती है, जमीनों पर कब्जे कर लिए जाते है। निम्न वर्गो के कच्चे घरो में आग लगादी जाती है, महिलाओं को डायन बता कर घर से बाहर लाकर पीटा जाता है। आवंटित भूमि पर भी कब्जा नहीं करने दिया जाता। अन्य लोग काबिज होने का प्रयास करते है। मारपीट, हिंसा होती है। महिलाओं से दुर्व्यवहार, बलात्कार की घटनायें होती है। नशंस हत्यायें भी हो रही है। भयभीत कर उन्हें भगा दिया जाता है। दलित बन्धुआ मजदूर, खेतीहर मजदूर की तरह दिहाड़ी पर कार्य कर अपना पेट भरते है। कठोर कानूनी प्रावधानों के बावजूद अपेक्षित पुलिस कार्यवाही नहीं होती अनुसूचित जाति के लोगों की जमीनों पर अतिक्रमण करने, उनको बेदखल करने, आवंटी को जमीन पर कब्जा नही करने देने के सम्बन्ध में कठोर कानून बने हुए है परन्तु इन कानूनों की पालना कानून की मंशा के अनुरूप नहीं की जा रही है। परिणाम स्वरूप दलितों के मामले या तो न्यायालयों में लंबित रहते है अथवा सारहीन घोषित कर खारिज कर दिये जाते है।स्पष्ट प्रावधान है कि आवंटी की जमीन पर कब्जा नहीं करने देना, बेदखल बदलने की जरुरत वाले लागा बुराई नही दिखतीकरने पर पुलिस, प्रशासन व अधिकारीगण स्वयं तुरन्त कार्यवाही करें परन्तु ऐसा नहीं है मगर अनुसूचित जातियों की जमीनों पर येन-केन-प्रकारेण अवैध कब्जे होने पर भी शीघ्र कार्यवाही होकर निराकरण नहीं होता।


     भंयकर गरीबी में अपना जीवन समाप्त करने वाले निम्न वर्ग के हिन्दुओं के बारे में धर्मान्तरण का हो- हल्ला मचाने वाले आज भी अपनी व्यक्तिगत भावनाओं व राजनैतिक मकसदों के लिएघृणा फैलाते है। निम्न वर्गो के प्रति पूर्वाग्रह अत्यन्त गहरे है। अगडी जातियां निम्न वर्गो, कृषको व श्रमिको, को बराबरी के अधिकार से वंचित करने के लिए किसी हद तक जा सकती है।


       अत्याचार, असमानता के कारण दलितो पर अत्याचारों के खिलाफ कोई नहीं बोलता आज भी जातियों के आधार पर संगठनों व राजनीतिक पार्टियों द्वारा निरंतर विद्वेष फेलाया जा रहा है। आज भी जातिय हितो पर जोर दिया जा रहा है व जाति के नाम पर गोलबन्दी होती है। जाति विहीन समाज की अवधारणा समाप्त हो रही है। जाति को अभिषाप कहने वाले लोग कम हो रहे हैं। ऐसे लोग अधिक है जिन्हें जाति व्यवस्था में बुराई नही दिखती। जातिवाद, सांप्रदायिकता, असमानता बढ़ रही है। जातीय राजनीति के चलते यह व्यवस्था ज्यादा मजबूत हुई।


       मेरे जमीनी अनुभव, आंकड़े व वस्तुस्थिति यह दर्शाती है कि इन कानूनों का पूरी ईमानदारी व निष्पक्षता के साथ पालन नहीं होता। पुलिस यह कहकर मामले को टाल देती है कि मामला राजस्व व पैसों का है, पीड़ित पक्ष को राजस्व न्यायालयों में याचिका करनी चाहिए। राजस्व न्यायालयों में ऐसे मामलों को प्राथमिकता नहीं दी जाती और मामले में न्यायाधिकारी की संकुचित भावना, दलित विरोधी मानसिकता व लोकसेवकों की मनोवृति के कारण मामला सारहीन बन जाता है। प्रदेश के अनेक भागों में आज भी दलित, अमीरों के यहां पर, खेतीहर श्रमिक के रूप में कार्य करते है, उन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जा रही है। उनको बलात् श्रमिक बने रहने पर मजबूर किया जा रहा है। प्रभावशाली लोग दलितों की जमीनों को गैर कानूनी और बेईमानी ढंग से कब्जा कर रहे है और दलित भूमिहीन व लाचार बनकर गरीबी की ओर धकेले जा रहे है।


       राजाशाही, जागीरदारी व सामंतशाही खत्म हो गई परन्तु जमीनें अब भी ऐसे वर्गों के हाथ में है जो इन दलितों, आदिवासियों व भूमिहीनों को अपनी मानसिकता के कारण बेदखल करते है। गांवों में रूढ़ीवादी जरुरत सामाजिक परंपरायें आज भी विद्यमान है। जातीयता और अस्पृश्यता की भावना से प्रेरित होकर सुनियोजित ढंग से दलितों की जमीनों पर अतिक्रमण कर बेदखल किया जा रहा है। बेनामी ढंग के कब्जे कर लिये जाते है। सिंचाई व पेयजल के साधनों से भी उनको वंचित किया जा रहा है।


       जवाहरलाल नेहरु ने प्रशासनिक तोर पर जाति प्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया था। उन्होने अधिकारियों को कहा था कि अपने नामों के आगे जाति का उल्लेख नही करें। केन्द्रीय सचिवालयों व प्रान्तीय सचिवालयों में ऐसी नाम पट्टिकाएं लगी दिखाई दी थी जिनमें नाम के साथ जाति सूचक शब्द नहीं होते थे। उन्होनें आवेदन फार्मो से जाति का कालम भी हटा दिया, परन्तु अब जाति बडे जोर षौर के साथ उभर गई है। अन्तर्जातिय विवाह के लिए सरकार ने वर वधु को बड़ी राशि देने का निर्णय लिया परन्तु वह सफल नही हो सका। सबसे दुखद स्थिति यह है कि इन दलित वर्गो से बने बड़े अफसर व चुने गये उच्च जननेता चुनाव के पश्चात इन्हें भूलकर बड़े नगरों में ऐशोआराम से रहते है, इनके विकास व उत्थान में रूचि नहीं लेते केवल समयसमय पर अपना वक्तवय जारी कर वाहवाही लूटते है। असमानता व दूरियां कम करने की न कोई नीति रही, न कोई ईमानदारी से क्रियान्वित किया जाने वाला व्यक्ति, कार्यक्रम व चर्चा। इस प्रकार की स्थिति को विशेष प्रयासों से ही बदलना होगा। अस्पृश्यता, छुआछुत उन्मूलन, बेगार प्रथा के मामलों में कठोर कार्यवाही करनी होगी। भूमि सुधार कानून को सख्ती से लागू करना होगा। भूमि संबंधी विवादों को तुरंत निपटाने के लिए राज्य में फास्ट ट्रेक कोर्ट गठित करने होगें। बेघर व सदियों से सुविधाओं से वंचित दलितों को आवासीय पट्टे दिये जाकर, विस्तृत सर्वे कराकर भूमि व राजस्व रिकार्ड को कंप्यूटरीकृत किया जाना आवश्यक हैकानून की धारा 183-बी में भी अतिक्रमी व बेदख्ली करने वाले के विरुद्ध शीघ्र कठोर कार्यवाही की जाये। इससे भी महत्वपूर्ण कार्य है अनुसूचित जाति अत्याचार अधिनियम के तहत कार्यवाही नहीं करने वाले अधिकारी के विरूद्ध कार्यवाही की जाये, उनकी जिम्मेदारी निष्चित की जाय। संविधान, कानूनी तरीके व सामाजिक जागरूकता के साथ निरन्तर सक्रियता से ही समरसता की ओर बढ़ा जा सकता है। यदि हम सामाजिक भेदभाव व जातिवाद को ईमानदारी से मिटाना चाहते हैं तो दलितों व निम्न वर्ग को आर्थिक स्तर पर भी मजबूत करना होगा तथा निम्न जातियों में अन्याय के विरूद्ध उठ खड़ा होने का जज्बा उत्पन्न करना होगा।


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