मुसलमानों को सियासत में हिस्सेदारी आखिरकार क्यों नहीं मिलती है
आजादी के इतने वर्षों बाद भी मुस्लिम समाज भारतीय सियासत में अपनी हिस्सेदारी क्यों नहीं बना पाया है यूं तो मुस्लिमों ने विधायक से लेकर मंत्री व देश के राष्ट्रपति तक के पद को सुशोभित किया है। बड़े पदों पर रहने व देश की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या होने के बावजूद भी देश के किसी भी राज्य में अपनी लीडरशिप बनाने व हिस्सेदारी लेने में विफल ही रहे हैं। आजादी के बाद से लेकर आज तक मुस्लिमों ने अपने वजूद के किसी भी बुनियादी मुद्दे पर वोट नहीं किया, जब भी अपने मत का प्रयोग किया है सिर्फ सेक्यूलर के नाम पर ही मत किया है। देश की गंगा जमुना तहजीब को बनाए रखने के लिए मत का प्रयोग किया गया है। यही कारण है कि भाजपा को छोड़कर मुस्लिम, उन सभी पार्टियों के वोट बैंक है, जो पार्टियां सेक्युलरिज्म को बचाए रखने की बात करती है। अगर ये भी कहा जाए कि मुस्लिम समाज देश के सेक्युलरिज्म की नींव है, इस बात में भी कोई शक नहीं होगा। सामाजिक स्तर पर कई राजनैतिक पार्टियों की लीडरशिप को उन्हीं के समाज के द्वारा खड़ा किया गया था। जैसे की भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी व बसपा की कामयाबी की शुरुआत भी सामाजिक स्तर पर ही हुई थी। मुस्लिमों ने अपने बुनियादी मुद्दे भूलकर बिना किसी शर्त के इन दोनों ही पार्टियों को कामयाब करने में अपना पूरा योगदान दिया है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को अपने मत का प्रयोग करते ही चले आ रहे हैं, जिन राज्यों में कम्यूनल और
सैक्यूलर दलों काहा मजबूत किया गया सेक्यूलर लड़ाई है। वहां मुस्लिम समाज के द्वारा सेक्यूलर दलों को ही मजबूत किया गया है। एक नजर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर ही करें तो उत्तर प्रदेश 20 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला राज्य है यहां विधानसभा की कुल 403 सीटों में से 143 सीटें तो ऐसी है जो मुस्लिम वोटरों पर ही निर्भर है। गौर करने वाली बात यह है कि इन्हीं मुसलमानों की वोट बैंक की ताकत के वजूद पर सपा, बसपा जैसी दोनों ही पार्टियां कई बार सत्ता हासिल कर चुकी है। आज जब देश की सत्ता की बागडोर कम्युनल पार्टी के हाथ में चली गई है, जब से देखा जाए तो मुस्लिमों को छोड़कर सेक्यूलर पार्टियों का सुरक्षित वोट बैंक में सेंध लग चुकी है। यही बड़ी वजह थी कि राहुल गांधी अपनी परम्परागत सीट अमेठी से चुनाव हार जाते हैं और मुस्लिम बाहुल्य सीट केरल वायनाड से चुनाव जीत जाते हैं। इसी तरह अखिलेश यादव मुस्लिम बाहुल्य सीट आजमगढ़ से चुनाव जीतकर आते हैं सैकड़ों यादव बाहुल्य बूथों पर भी कमल खिलता नजर आया था। राजस्थान में भी कांग्रेस के दिग्गज नेता सचिन पायलट ने भी मुस्लिम बाहुल्य सीट चुनी थी। दिलचस्प बात तो यह है कि बीजेपी की तरफ से राजस्थान के (टोंक) विधानसभा में पीडब्ल्यूडी मंत्री रह चुके यनुस खान को कांग्रेस के सचिन पायलट के सामने उतारा गया था लेकिन (टोंक) विधानसभा के मुस्लिम वोटरों ने समाज को ताक पर रखते हुए देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए ही मत का प्रयोग किया था। यही एक मुख्य कारण है,
मुस्लिम सियासत में अपनी हिस्सेदारी नहीं बना पाए हैं। मुस्लिम समाज ने हर बार कम्यूनल पार्टियों के खिलाफ ही मत किया है। सेकुलरिज्म को मजबूत करते हुए देश का मुसलमान खुद कमजोर होता चला आ रहा है। सियासत में अपनी हिस्सेदारी से वंचित होता चला आ रहा है मैं इतना जरूर कहूंगा कि काश मुसलमान कम्युनल सेक्यूलर के झमेले में नहीं पड़ते भाजपा को हराने के बजाए अपने आप को मजबूत करने के लिए लड़ते तो अपनी भी मजबूत लीडरशिप किसी राजनैतिक पार्टी के दम पर खड़ा कर सकते थे। इत्तेहाद के साथ अपनी पार्टी को मजबूत करते तो आज मुस्लिमों के हालात बद से बदतर नहीं होते। यही नाम निहाद सेक्युलर दलों को मजबूरन मुसलमानों से सियासत में गठबंधन कर के हिस्सेदारी देनी ही पड़ती, देश का मुसलमान। देश में किंग मेकर का किरदार तो निभाता ही साथ ही दलित बेसहारा मजदूर वर्ग की मदद कर सकता था। देश मे बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आता। देश की सत्ता के लॉकर की चाबी, देश का मुस्लिम समाज ही बनता किसी शायर ने बहुत खूब लिखा है, तबाह कर दिया अहबाब को सियासत ने मगर मकानों से झंडे नहीं उतरते।।
-आबिद कुरैशी (महवा), दौसा