इस्लाम में अज़ान देने वालों की बड़ी अहमियत है
इस्लाम की बुनियाद जिन पांच
चीज़ों पर है इनमें से एक अहम चीज़ और सुतून नमाज़ है। इसकी अहमियत के लिए इतना ही
काफी है कि रसूले करीम ने इस्लाम और कुफ्र के बीच में पहचान के लिए नमाज़ ही को
निशानी बताया है यानि नमाज़ पढ़ने वाला मुसलमान और न पढ़ने वाले को कुफ्र करने
वाला फ़रमाया है। बात यह है कि जो चीज़ जितनी अहम होती है उसके साथ बहुत सी और
लाज़िम (ज़रूरी) बातें जुड़ी होती हैं। नमाज़ के लिए ज़रूरी चीज़ों में एक अज़ान
भी है, इसके ज़रिए
अल्लाह और रसूले अकरम का नाम बुलंद किया जाता है। अपने ईमान की ग़वाही दी जाती है
और इसका खास मक़सद ईमान वालों को नमाज़ की तरफ़ बुलाना है। अज़ान के ज़रिए रोज़ाना
पांच बार यह ऐलान किया जाता है कि तुम्हारी कामयाबी किस चीज़ में है, रोज़ाना पांच बार अपने ईमान को ताज़ा
करने की दावत दी जाती है। अल्लाह सबसे बड़ा है का नारा बुलंद किया जाता है। इस बात
की गवाही दी जाती है कि रसूले करीम अल्लाह के रसूल हैं और यही अज़ान ख़त्मे नबूवत
का ऐलान भी है क्योंकि इस अज़ान को क़यामत तक बुलंद किया जाना है। अगर नबी-ए-करीम
के बाद किसी और नबी के आने का होता तो क़यामत तक के लिए इस अज़ान को बाकी नहीं रखा
जाता।
मक़सद यह इतने अहम ऐलान पर हमारा
कितना ध्यान रहता है। अगर कोई सरकारी ऐलान हो जाए तो हम सब बड़ी पाबन्दी से बड़ी
जिम्मेदारी से उस ऐलान में कही बातों पर अमल करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसका
मक़सद यह बिल्कुल नहीं है कि हम सरकारी ऐलान व कानून के खिलाफ़वर्जी (उल्लंघन)
करें। दरअसल बात यह है कि जिस तरह हम सरकारी ऐलान को मानते हैं उसी तरह चौदह सौ
बरस से बुलंद होने वाली आवाज़ और ऐलान को सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। शायद यह ही
हमारी बरबादी और रुसवाई की वजह है। रसूले करीम ने फ़रमाया है कि क़यामत के दिन
मोअज्जिन (अज़ान) देने वाले ऊंची गरदन वाले होंगे। नबी-ए-अकरम ने मोअज्जिनों के
लिए मगफ़िरत की दुआ फ़रमाई है अब यह देखने वाली बात है कि अज़ान देने वाले लोगों
के लिए कौन दुआ फ़रमा रहा है इसलिए इस काम की फ़ज़ीलत का अंदाज़ा लगाना हमारे बस
की बात नहीं है। मगर हमारे समाज में अज़ान देने वाले की अहमियत और मक़ाम ही कुछ और
है हमने मोअज्जिन की क़दर और अहमियत को घटा दिया है। हमारे लिए तो मोअज्जिन वो है
जो झाडू लगाए, मस्जिद की
सफाई करे और साथ-साथ
मस्जिद कमेटी के ओहदेदारों के कुछ
काम भी करे। हदीस शरीफ में बताई गई व फ़ज़ीलत के मुताबिक तो होना यह चाहिए था कि
हम अज़ान देने वालों की ख़िदमत करते मगर हम तो उन्हीं से ख़िदमत लेने लगे और
उन्हें मोअज्ज़िन से खादिम बना डाला बल्कि कहीं कहीं तो मोअज्ज़िन के साथ बेहद
बुरा बर्ताव (व्यवहार) किया जाता है। एक ओर बात हम अपने काम के लिए अच्छे से अच्छा
कारीगर सलीका रखने वाला आदमी तलाश करते हैं मगर अफसोस की बात है मोअज्जिन बनाने के
लिए किसी भी शख्स को मुकर्रर कर देते हैं। यही वजह है कि आज मस्जिदों में अलग-अलग
और अजीब तरह की आवाज़ों में अजीब से रागों में अज़ान की आवाज़ बुलंद होती है।
अल्लाह और उसके नबी का नाम इतना मीठा है कि सुनने के बाद कानों में शहद की मिठास
घुल जाए और दिल नमाज़ की तरफ़ ले जाए और लोगों के दिलों में अज़ान और नमाज़ का
अहतराम पैदा हो जाए। यह जिम्मेदारी मस्जिद की कमेटियों को खूबसूरती से निभानी
चाहिए बल्कि अज़ान देने की ट्रेनिंग होनी चाहिए और उस तरबीयत के बाद ही मोअज्जिन
मुकर्रर किए जाएं। उस वक्त अज़ान रस्म नहीं रहेगी बल्कि उसमें रुहे बिलाली भी
शामिल हो जाएगी।