आम मुसलमान और इमाम के हुकूक
इमाम मस्जिदों में नौकर की हैसियत से नहीं रखते हैं। इस्लाम में इमाम का एक पद होता है इसके लिए दुनियावी एतबार से समझना पड़ेगा जैसे एक इलाके का नुमाइंदा चुनते हैं एमएलए, एमपी, पार्षद आदि जो दुनियावी काम के लिए सभी तरह से अपने इलाके का सर्वे सर्वा होते हैं। ठीक इसी तरह अल्लाह ने इमाम का पद रखा है जिसमें इमाम की जिम्मेदारी सारी कौम (उम्मत) को नेक राह पर साथ लेकर चलना है। और हर तरह से दीनी एव दुनियावी एतबार से उम्मत की खिदमत को अंजाम देना है। अब मसला यहां है यह आता है की विधायक, सांसद या पार्षद के लिए तो सरकारें तनख्वाह देती हैं और उनके खुद के व्यापार भी हैं।जिससे वह ऐशो ओ आराम की जिंदगी बसर करते हैं।लेकिन यहां इमाम साहब के पद पर मुकर्रर शख्स के आज के हालात देखेंगे तो मैं माफी चाहूंगा कि इंसान तोबा कर लेगा कि मेरी नस्लों से कोई इमाम ही नहीं बने। क्योंकि इमाम का वजीफा मस्जिद, मदरसा, इबादतगाहों कि कमेटी इतना कम रखती हैं कि आप हिसाब लगाएंगे तो आपके सुबह का नाश्ता भी सही तरीके से उस वजीफे से नहीं होगा। माना आप आज के इमामों को वह दर्जा तो नहीं दे सकते 1400 साल पहले साहबाओं वाला, पर पर उनकी कुर्बानी भी कम नहीं है। इतना कम वजीफा तीन चार बच्चे, दो खुद इस तरह पांच छह लोगों का परिवार उसका किराया, भाड़ा, बीमारी तकलीफ और इंसान की बहुत सारी जरूरी जरूरतें होती हैं ।उनके रहने के लिए एक कमरा होता है जिसमें इतनी बड़ी फैमिली उसमें सुविधा के नाम पर अगर पंखा हो तो हो, नहीं तो वो भी इमाम साहब खुद लगाएं। इस तरह इमामत अब दुनियावी इम्तिहान हो गया है कि ईमान पर कितना मुकम्मल रहता है।पर अल्लाह ने आज के दौर के इमामों को इमान के जज्बे से नवाजा है। जो दिन रात उम्मत की खिदमत कर रहे हैं।
ईमामत करने वाला शख्स सबसे मिलनसार होता है और उसकी बात इस दौर में लोगों पर कम असर करती है। उसका कारण इमाम का आर्थिक रूप से कमजोर होना भी है। आज के दौर में लोगों की सोच ऐसी हो गई है कि लोग आर्थिक संपन्न व्यक्ति को ही रुतबेदार मानते हैं। चाहे वह दीनी एवं दुनियावी एतबार से कितना ही काबिल हो न हो। इन सब के लिए हमारी जो मस्जिद, मदरसा इबादतगाहों की कमेटियों ज़िम्मेदार हैं। उनको ये समझना चाहिए कि इस्लाम में इमामत का जो पद है उसका मतलब ही नायाब ए रसूल है, सुप्रीम है, हाकिम है। और उसके हिसाब से मोहल्ले, शहर, कस्बा, राज्य या देश की मस्जिद का इमाम है। उसी अंदाज में सुविधाएं होनी चाहिए परिवार के सदस्यों को देखते हुए ठीक ठाक मकान हो और मकामी अवाम की हालत के मुताबिक इमाम साहब के सारे खर्चे तय हों। मसलन यूं मानिए मकामी लोग खाने में जो खाएं उससे अच्छा खाना इमाम साहब का होना चाहिए नहीं तो कम से कम मकामी लोगों के बराबर तो हो। अगर मकामी लोग सवारी में मोटरसाइकिल इस्तेमाल करते हैं तो इमाम साहब का हक कार का बनता है और कम से कम मोटरसाइकिल का इंतजाम तो हो। इमामत में आज के दौर में आर्थिक पिछड़े व्यक्ति ही अधिक संख्या में हैं। उसका कारण आर्थिक रूप से संपन्न लोग दुनियावी शिक्षा की तरफ लगाव रखते हैं। उसका कारण मदरसों में केवल दीन की ही शिक्षा का होना है। अगर मदरसों से बच्चे डॉक्टर,इंजीनियर, आईआईटी या एमबीए के साथ हाफिज और आलिम की शिक्षा और इमामत के लिए मिंबरों पर खड़े होंगे तो वह दिन दूर नहीं कि अल्लाह इस कौम को फिर से हाकिम, रहबर और शासक बना दे। पर आज सिर्फ वह मुसलमान बच्चे मदरसों में हैं जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं जो दीनी तालीम हासिल कर गुरबत में ही जीवन पूरा कर लेते हैं। और उनकी बातों का असर लोगों तक कम ही रह पाता है। इसलिए मदरसों में जिम्मेदार हजरात दीनी एवं दुनियावी उच्च क्वालिटी की शिक्षा पर जोर दें। चंदे के लिए पहले एक सफीर है तो अब दो सफीर तय कर दें। और इलाकों में दुनियावी तालीम भी जरूर जरूरी कर दें तो उम्मत कामयाबी की तरफ इंशाल्लाह ज़रूर लौट आएगी।
जब मिंबर पर दुनियावी महारत के साथ इमाम मुकर्रर होंगे तो उनकी बात में दम होगा। और लोग पूरी तरह उनकी बात मानेंगे और उनकी बात असर भी करेगी। और अगर दुनियावी तालीम अच्छी क्वालिटी की होगी तो आर्थिक रूप से संपन्न लोग भी मदरसों और दीनी इदारों से मुतास्सिर होंगे और अपने बच्चों को इस्लामी इदारों में दाखिला दिलाएंगे और आर्थिक रूप से संपन्न लोगों के बच्चे जब मिंबरों पर इमाम होंगे तो इंशाल्लाह सारे फैसले कौम के हक में होंगे और आज के इमामों से कहीं ज्यादा असरदार होंगे। क्योंकि ये आर्थिक दौर है संपन्न लोगों की बात को ज्यादा तरजीह जी दी जाती है।
लेख-ए॰ जे॰ खान (जयपुर)